अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 22/ मन्त्र 1
अ॒भि त्वा॑ वृषभा सु॒ते सु॒तं सृ॑जामि पी॒तये॑। तृ॒म्पा व्यश्नुही॒ मद॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । त्वा॒ । वृ॒ष॒भ॒ । सु॒ते । सु॒तम् । सृ॒जा॒मि॒ । पी॒तये॑ । तृ॒म्प । वि । अ॒श्नु॒हि॒ । मद॑म् ॥२२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि त्वा वृषभा सुते सुतं सृजामि पीतये। तृम्पा व्यश्नुही मदम् ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । त्वा । वृषभ । सुते । सुतम् । सृजामि । पीतये । तृम्प । वि । अश्नुहि । मदम् ॥२२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 22; मन्त्र » 1
विषय - प्रभु-स्मरण व सोम-रक्षण
पदार्थ -
१. हे (वृषभ) = सुखों के वर्षक इन्द्र! (सुते) = सोम की उत्पत्ति होने पर (सुतं पीतये) = इस उत्पन्न सोम के रक्षण के लिए (त्वा) = आपको (अभिसृजामि) = अपने साथ संयुक्त करता हूँ। हृदयदेश में आपके उपस्थित होने पर न वासनाओं का आक्रमण होगा और न ही सोम का विनाश होगा। २. हे प्रभो! (तृम्पा) = आप इस सोम-रक्षण द्वारा प्रसन्न होइए-हम आपके प्रीतिपात्र बनें। आप (मदं व्यश्नुहि) = आनन्दजनक सोम को हमारे अन्दर व्याप्त कीजिए।
भावार्थ - हम प्रभु-स्मरण द्वारा सोम-रक्षण करते हुए आनन्द प्राप्त करें।
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