अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 22/ मन्त्र 2
मा त्वा॑ मू॒रा अ॑वि॒ष्यवो॒ मोप॒हस्वा॑न॒ आ द॑भन्। माकीं॑ ब्रह्म॒द्विषो॑ वनः ॥
स्वर सहित पद पाठमा । त्वा॒ । मू॒रा: । अ॒वि॒ष्यव॑: । मा । उ॒प॒ऽहस्वा॑न: । आ । द॒भ॒न् ॥ माकी॑म् । ब्र॒ह्म॒ऽद्विष॑: । व॒न॒: ॥२२.२॥
स्वर रहित मन्त्र
मा त्वा मूरा अविष्यवो मोपहस्वान आ दभन्। माकीं ब्रह्मद्विषो वनः ॥
स्वर रहित पद पाठमा । त्वा । मूरा: । अविष्यव: । मा । उपऽहस्वान: । आ । दभन् ॥ माकीम् । ब्रह्मऽद्विष: । वन: ॥२२.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 22; मन्त्र » 2
विषय - 'उपहस्वा-अविष्य, ब्रह्मद्विद्' मूढ़
पदार्थ -
१.हे प्रभो! (मूरा:) = मूढ़ लोग (अविष्यवः) = [अव हिंसायाम्] दूसरों की हिंसा की कामनावाले (त्वा) = आपको (मा आदभन्) = हमारे अन्दर हिंसित करनेवाले न हों। (उपहस्वान:) = उपहास करनेवाले लोग भी हमें आपकी आस्था से दूर करने में समर्थ न हों। इनकी बातें हमारी आस्था को नष्ट न कर पाएँ। २. हे प्रभो। (त्वम्) = आप (ब्रह्मद्विषः) = ज्ञान के साथ अप्रीतिवाले लोगों को माकी (वन:) = मत प्राप्त हों। ज्ञानी भक्त ही आपका प्रिय हो।
भावार्थ - संसार में हम आध्यात्मिकता का उपहास करनेवाले, पर-हिंसारत मूढ़ लोगों की बातों में आकर प्रभु के प्रति श्रद्धा को न छोड़ बैठें। ज्ञानरुचि बनें और प्रभु को प्राप्त हों।
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