अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 22/ मन्त्र 4
अ॒भि प्र गोप॑तिं गि॒रेन्द्र॑मर्च॒ यथा॑ वि॒दे। सू॒नुं स॒त्यस्य॒ सत्प॑तिम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । प्र । गोऽप॑तिम् । गि॒रा । इन्द्र॑म् । अ॒र्च॒ । यथा॑ । वि॒दे ॥ सू॒नम् । स॒त्यस्य॑ । सत्ऽप॑तिम् ॥२२.४॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि प्र गोपतिं गिरेन्द्रमर्च यथा विदे। सूनुं सत्यस्य सत्पतिम् ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । प्र । गोऽपतिम् । गिरा । इन्द्रम् । अर्च । यथा । विदे ॥ सूनम् । सत्यस्य । सत्ऽपतिम् ॥२२.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 22; मन्त्र » 4
विषय - सूनु सत्यस्य, सत्पतिम्
पदार्थ -
१. हे स्तोत: । तू (गोपतिम्) = ज्ञान की वाणियों के स्वामी (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को (यथा विदे) = यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के लिए (गिरा) = स्तुतिवाणियों से (अभि प्र अर्च) = प्रकर्षेण पूजित करनेवाला हो। २. तू उस प्रभु को पूजित करनेवाला हो जो (सत्यस्य सूनुम्) = सत्य की प्रेरणा देनेवाले हैं तथा (सत्पतिम्) = सज्जनों के रक्षक हैं।
भावार्थ - हम प्रभु-स्तवन करें, प्रभु हमें यथार्थ ज्ञान देंगे, सत्य की प्रेरणा प्राप्त कराएँगे और हमें सज्जन बनाकर हमारा रक्षण करेंगे।
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