अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 22/ मन्त्र 3
इ॒ह त्वा॒ गोप॑रीणसा म॒हे म॑न्दन्तु॒ राध॑से। सरो॑ गौ॒रो यथा॑ पिब ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ह । त्वा॒ । गोऽप॑रीणसा । म॒हे । म॒न्द॒न्तु॒ । राध॑से ॥ सर॑: । गौ॒र: । यथा॑ । पि॒ब॒ ॥२२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
इह त्वा गोपरीणसा महे मन्दन्तु राधसे। सरो गौरो यथा पिब ॥
स्वर रहित पद पाठइह । त्वा । गोऽपरीणसा । महे । मन्दन्तु । राधसे ॥ सर: । गौर: । यथा । पिब ॥२२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 22; मन्त्र » 3
विषय - महे राधसे
पदार्थ -
१. प्रभु जीव से कहते हैं कि (इह) = इस जीवन में (त्वा) = तुझे ये सोमकण (गोपरीणसा) = ज्ञान की रश्मियों के चारों ओर व्यापन के द्वारा [परि पूर्वाद् व्याप्तिकर्मणो नसते: विवप्] (महे राधसे) = महती सिद्धि के लिए (मन्दन्तु) = आनन्दित करें [मादयन्तु]। सोमकणों का रक्षण करता हुआ तू ज्ञानाग्नि के दीपन से ज्ञानरश्मियों से व्याप्त होकर अविद्यान्धकार का विनाश करनेवाला बन। यह तेरा सर्वमहान् साफल्य होगा। इसी से तेरा जीवन आनन्दमय होगा। २. (यथा) = जैसे (गौर:) = गौरमृग (सर:) = तालाब का जल पीता है इसी प्रकार तू सोम का (पिब) = पान कर-यह सोमपान ही तेरे सारे उत्कर्ष का मूल है।
भावार्थ - हमें चाहिए कि सोम-रक्षण द्वारा जीवन को ज्ञानाग्नि से दीप्त करें। यही आनन्द व साफल्य का मूल है।
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