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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 22

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 22/ मन्त्र 6
    सूक्त - प्रियमेधः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-२२

    इन्द्रा॑य॒ गाव॑ आ॒शिरं॑ दुदु॒ह्रे व॒ज्रिणे॒ मधु॑। यत्सी॑मुपह्व॒रे वि॒दत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्‍द्रा॑य । गाव॑: । आ॒ऽशिर॑म् । दु॒दु॒ह्रे । व॒ज्रिणे॑ । मधु॑ । यत् । सी॒म् । उ॒प॒ऽह्व॒रे । वि॒दत् ॥२२.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्राय गाव आशिरं दुदुह्रे वज्रिणे मधु। यत्सीमुपह्वरे विदत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्‍द्राय । गाव: । आऽशिरम् । दुदुह्रे । वज्रिणे । मधु । यत् । सीम् । उपऽह्वरे । विदत् ॥२२.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 22; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    १. (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय (वज्रिणे) = क्रियाशीलतारूप वन को हाथ में लिये हुए पुरुष के लिए (गाव:) = प्रकाश की रशिमयाँ (मधु) = उस मधुर ज्ञान का (दुदहे) = दोहन करती हैं, जोकि (आशिरम्) = वासनामल को समन्तात् शीर्ण करनेवाला है। २. यह वह समय होता है (यत्) = जबकि (सीम्) = निश्चय से (उपहरे) = एकान्त हृदयदेश में समीप ही [Prominently] उस प्रभु को (विदत्) = प्राप्त करता है।

    भावार्थ - हम जितेन्द्रिय बनें। हमें वह मधुर ज्ञान प्राप्त होगा जो हमें हृदयदेश में प्रभु की प्राप्ति के योग्य बनाएगा। यह प्रभु को पानेवाला व्यक्ति 'विश्वामित्र' बनता है-सबके प्रति स्नेहवाला। यही अगले सूक्त का ऋषि है -

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