अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 23/ मन्त्र 1
आ तू न॑ इन्द्र म॒द्र्यग्घुवा॒नः सोम॑पीतये। हरि॑भ्यां याह्यद्रिवः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । तु । न॒: । इ॒न्द्र॒ । म॒द्र्य॑क् । हु॒वा॒न: । सोम॑ऽपीतये ॥ हरि॑ऽभ्याम् । या॒हि॒ । अ॒द्रि॒ऽव॒: ॥२३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
आ तू न इन्द्र मद्र्यग्घुवानः सोमपीतये। हरिभ्यां याह्यद्रिवः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । तु । न: । इन्द्र । मद्र्यक् । हुवान: । सोमऽपीतये ॥ हरिऽभ्याम् । याहि । अद्रिऽव: ॥२३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 23; मन्त्र » 1
विषय - आद्रिवः! आयाहि
पदार्थ -
१. हे (अद्रिवः) = आदरणीय व वज्रहस्त (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! आप (हुवानः) = पुकारे जाते हुए (मद्रयक्) = मदभिमुख होकर (न:) = हमारे इस जीवन-यज्ञ में (सोमपीतये) = सोम के पान के लिए शरीरों में ही सोम के रक्षण के लिए (हरिभ्याम्) = उत्तम इन्द्रियाश्वों के साथ (तू) = निश्चय से (आयाहि) = प्राप्त होइए। २. हमारे हृदयों में आपके स्थित होने पर ही ये इन्द्रियाँ विषयासक्ति से बची रह पाती हैं। तभी सोम का रक्षण सम्भव होता है।
भावार्थ - हे प्रभो! आप हमारे हृदय में दर्शन दीजिए, जिससे इन्द्रियाँ विषयासक्ति से बची रहें|
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