अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 23/ मन्त्र 6
स म॑न्दस्वा॒ ह्यन्ध॑सो॒ राध॑से त॒न्वा म॒हे। न स्तो॒तारं॑ नि॒दे क॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठस: । म॒न्द॒स्व॒ । हि । अन्ध॑स: । राध॑से । त॒न्वा॑ । म॒हे ॥ न । स्तो॒तार॑म् । नि॒दे । क॒र॒: ॥२३.६॥
स्वर रहित मन्त्र
स मन्दस्वा ह्यन्धसो राधसे तन्वा महे। न स्तोतारं निदे करः ॥
स्वर रहित पद पाठस: । मन्दस्व । हि । अन्धस: । राधसे । तन्वा । महे ॥ न । स्तोतारम् । निदे । कर: ॥२३.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 23; मन्त्र » 6
विषय - तन्वा, महे राधसे, न निदे
पदार्थ -
१. हे प्रभो! (सः) = वे आप (अन्धसः) = सोम के द्वारा (हि) = निश्चय से (मन्दस्व) = हमें आनन्दित कीजिए।( तन्वा) = शक्तियों के विस्तार के हेतु से तथा (महे राधसे) = महान् ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए आप सोम के द्वारा हमें आनन्दित कीजिए। सोम-रक्षण द्वारा हम अपनी शक्तियों का विस्तार करनेवाले हों तथा मोक्षरूप महान् धन को प्राप्त कर सकें। २. आप (स्तोतारम्) = मुझ स्तोता को (निदे न कर:) = निन्दा के लिए न कीजिए। न मैं ओरों की निन्दा करता रहूँ, न निन्दा का पात्र ही बनें।
भावार्थ - प्रभु-स्तवन करता हुआ मैं सोम-रक्षण द्वारा शरीर की शक्तियों का विस्तार करूँ, अन्ततः उस महान् मोक्षधन को प्राप्त करूँ और कभी निन्दा के वशीभूत न हो जाऊँ। न निन्द्य बनें, न निन्दक होऊँ।
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