अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 23/ मन्त्र 3
इ॒मा ब्रह्म॑ ब्रह्मवाहः क्रि॒यन्त॒ आ ब॒र्हिः सी॑द। वी॒हि शू॑र पुरो॒डाश॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मा । ब्रह्म॑ । ब्र॒ह्म॒ऽवा॒ह॒: । क्रि॒यन्ते॑ ।आ । ब॒र्हि: । सी॒द॒ । वी॒हि । शू॒र॒ । पु॒रो॒लाश॑म् ॥२३.३॥
स्वर रहित मन्त्र
इमा ब्रह्म ब्रह्मवाहः क्रियन्त आ बर्हिः सीद। वीहि शूर पुरोडाशम् ॥
स्वर रहित पद पाठइमा । ब्रह्म । ब्रह्मऽवाह: । क्रियन्ते ।आ । बर्हि: । सीद । वीहि । शूर । पुरोलाशम् ॥२३.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 23; मन्त्र » 3
विषय - [प्रभु-ध्यान-प्रभु-दर्शन] पुरोडाश-सेवन
पदार्थ -
१. हे (ब्रह्मवाहः) = ज्ञान की वाणियों का वहन करनेवाले प्रभो! (इमा ब्रह्म) = ये स्तुतिवाणियाँ (क्रियन्ते) = हमसे की जाती हैं। आप (बर्हिः आसीद्) = हमारे हृदयासन पर आसीन होइए। हम ध्यान द्वारा हदय में प्रभु को देखने का प्रयत्न करें। २. हे (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो! आप (पुरोडाशम् वीहि) = जिसमें से पहले यज्ञ के लिए दिया गया है [पुरो दाश्यते यस्मात्] उस यज्ञशेषभूत अन्न का (वीहि) = भक्षण कीजिए। प्रभु ही तो हमारे इस अन्न का पाचन करते हैं, 'अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रतः । प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्'-देह में आश्रित प्रभु ही वैश्वानररूपेण अनों का पाचन करते हैं, अतः मैं क्या खाता हूँ, प्रभु ही देहस्थ होकर इस भोजन को करते हैं।
भावार्थ - हम प्रभु-स्तवन करते हुए इदयों में प्रभु का दर्शन करें। इस देहस्थ प्रभु को ही यज्ञशेषरूप अन्नों का सेवन करता हुआ जानें।
इस भाष्य को एडिट करें