अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 23/ मन्त्र 2
स॒त्तो होता॑ न ऋ॒त्विय॑स्तिस्ति॒रे ब॒र्हिरा॑नु॒षक्। अयु॑ज्रन्प्रा॒तरद्र॑यः ॥
स्वर सहित पद पाठस॒त्त: । होता॑ । न॒: । ऋ॒त्विय॑: । ति॒स्ति॒रे । ब॒र्हि: । आ॒नु॒षक् ॥ अयु॑ज्रन् । प्रा॒त: । अद्र॑य: ॥२३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
सत्तो होता न ऋत्वियस्तिस्तिरे बर्हिरानुषक्। अयुज्रन्प्रातरद्रयः ॥
स्वर रहित पद पाठसत्त: । होता । न: । ऋत्विय: । तिस्तिरे । बर्हि: । आनुषक् ॥ अयुज्रन् । प्रात: । अद्रय: ॥२३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 23; मन्त्र » 2
विषय - यज्ञ+ध्यान+क्रियाशीलता
पदार्थ -
१. (न:) = हमारे इस जीवन-यज्ञ में (होता) = यज्ञ करनेवाला यह (ऋत्विक् ऋत्वियः) = समय पर कार्य करनेवाला होता हुआ (सत्त:) = निषण्ण हुआ है, अर्थात् इस शरीर को प्राप्त करके मैं समय पर ठीक अग्निहोत्र आदि कर्मों को करनेवाला बनता हूँ। २. मेरे द्वारा (आनुषक्) = निरन्तर प्रतिदिन (बर्हि:) = जिसमें से वासनाओं का उद्बर्हण कर दिया गया है, वह हृदयासन (तिस्तिरे) = बिछाया गया है। मैं हदय को पवित्र करके उसपर आसीन होने के लिए आपको पुकारता हूँ। ३. (अद्रयः) = ये प्रभु के उपासक [adore आद्रियते] (प्रात:) = प्रात:-प्रातः ही (अयुज्रन्) = अपने को अपने कर्तव्य-कों में युक्त [संगत] कर देते हैं।
भावार्थ - हम समय पर अग्निहोत्र आदि कर्मों को करनेवाले हों। पवित्र हृदयासन पर प्रभु को आसीन करने का प्रयत्न करें। प्रात: से ही अपने कर्त्तव्य को करने में लग जाएँ।
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