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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 23

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 23/ मन्त्र 8
    सूक्त - विश्वामित्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-२३

    मारे अ॒स्मद्वि मु॑मुचो॒ हरि॑प्रिया॒र्वाङ्या॑हि। इन्द्र॑ स्वधावो॒ मत्स्वे॒ह ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । आ॒रे । अ॒स्मत् । वि । मु॒मु॒च॒: । हरि॑ऽप्रिय । अ॒र्वाङ् । या॒हि॒ ॥ इन्द्र॑ । स्व॒धा॒ऽव॒: । मत्स्व॑ । इ॒ह ॥२३.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मारे अस्मद्वि मुमुचो हरिप्रियार्वाङ्याहि। इन्द्र स्वधावो मत्स्वेह ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा । आरे । अस्मत् । वि । मुमुच: । हरिऽप्रिय । अर्वाङ् । याहि ॥ इन्द्र । स्वधाऽव: । मत्स्व । इह ॥२३.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 23; मन्त्र » 8

    पदार्थ -
    १. हे (हरिप्रिय) = प्रीतिकर इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करानेवाले [हरिः प्रियो यस्य] (इन्द्र) = परमैश्वर्य शालिन् प्रभो! (अस्मत् आरे) = हमसे दूर (मा विमुमुचः) = रथयुक्त अश्वों को मुक्त मत कर दीजिए। (अर्वाङ् याहि) = आप हमें आभिमुख्येन प्राप्त हों। २. हे (स्वधाव:) = आत्मधारणशक्तिवाले प्रभो! (इह) = इस-हमारे जीवन में आप (मत्स्व) = आनन्दित होइए। सोम-रक्षण के द्वारा आप हम उपासकों को आनन्दमय जीवनवाला बनाइए।

    भावार्थ - प्रभु हमें समीपता से प्राप्त हों। वे आत्मधारणशक्तिवाले प्रभु सोम-रक्षण द्वारा हमें आनन्दित करें।

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