अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 24/ मन्त्र 2
तमि॑न्द्र॒ मद॒मा ग॑हि बर्हि॒ष्ठां ग्राव॑भिः सु॒तम्। कु॒विन्न्वस्य तृ॒प्णवः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । इ॒न्द्र॒ । मद॑म् । आ । ग॒हि॒ । ब॒र्हि॒:ऽस्थाम् । ग्राव॑ऽभि: । सु॒तम् ॥ कु॒वित् । नु । अ॒स्य । तृ॒प्णव॑: ॥२४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
तमिन्द्र मदमा गहि बर्हिष्ठां ग्रावभिः सुतम्। कुविन्न्वस्य तृप्णवः ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । इन्द्र । मदम् । आ । गहि । बर्हि:ऽस्थाम् । ग्रावऽभि: । सुतम् ॥ कुवित् । नु । अस्य । तृप्णव: ॥२४.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 24; मन्त्र » 2
विषय - जितेन्द्रियता-वासनाविनाश-स्तवन
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! (तं मदम् आगहि) = उस उल्लासजनक सोम को प्राप्त हो, जो (बहिष्ठाम्) = वासनाशून्य हृदय में स्थित होनेवाला है। (ग्रावभिः सुतम्) = स्तोताओं से सम्पादित होता है-प्रभु के स्तोता ही इसे अपने अन्दर रक्षित कर पाते हैं। २. तू (कुवित्) = बहुत (नु) = अब शीघ्र ही (अस्य तृप्णव:) = इससे तृप्त हो [तृपेः लेटिरूपम्]। इसके रक्षण से तू प्रीति का अनुभव कर ।
भावार्थ - सोम-रक्षण के लिए 'जितेन्द्रियता-वासनाविनाश व स्तवन' साधन हैं। इसके रक्षण से अद्भुत प्रीति का अनुभव होता है।
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