अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 24/ मन्त्र 5
इन्द्र॒ सोमाः॑ सु॒ता इ॒मे तान्द॑धिष्व शतक्रतो। ज॒ठरे॑ वाजिनीवसो ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । सोमा॑: । सु॒ता: । इ॒मे । तान् । द॒धि॒ष्व॒ । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो ॥ ज॒ठरे॑ । वा॒जि॒नी॒व॒सो॒ इति॑ । वाजिनीऽवसो ॥२४.५॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र सोमाः सुता इमे तान्दधिष्व शतक्रतो। जठरे वाजिनीवसो ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र । सोमा: । सुता: । इमे । तान् । दधिष्व । शतक्रतो इति शतऽक्रतो ॥ जठरे । वाजिनीवसो इति । वाजिनीऽवसो ॥२४.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 24; मन्त्र » 5
विषय - इन्द्र-शतक्रतो-वाजिनीवसो
पदार्थ -
१.हे (इन्द्र) = शत्रुविद्रावक प्रभो! (इमे सोमाः सुता:) = ये सोम सम्पादित हुए हैं। हे (शतक्रतो) = अनन्तशक्ति व प्रज्ञानवाले प्रभो! आप (तान् दधिष्व) = उनको धारण कीजिए। २. हे (वाजिनीवसो) = शक्तिप्रद अनों के द्वारा हमें बसानेवाले प्रभो! इन सोमकणों को (जठरे) = हमारे अन्दर ही-शरीर में ही धारण कीजिए। हम इन शक्तिप्रद अन्नों का सेवन करते हुए सोम को अपने अन्दर सुरक्षित कर पाएँ।
भावार्थ - सोम-रक्षण के लिए साधन हैं [क] जितेन्द्रियता [इन्द्र], [ख] सदा कर्मों व ज्ञान-प्राप्ति में लगे रहना [शतक्रतो], [ग] अन्नों का सेवन, मांस का असेवन [वाजिनीवसो]।
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