अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 24/ मन्त्र 1
उप॑ नः सु॒तमा ग॑हि॒ सोम॑मिन्द्र॒ गवा॑शिरम्। हरि॑भ्यां॒ यस्ते॑ अस्म॒युः ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । न॒: । सु॒तम् ।आ । ग॒हि॒ । सोम॑म् । इ॒न्द्र॒ । गोऽआ॑शिरम् ॥ हरि॑ऽभ्याम् । य: । ते॒ । अ॒स्म॒ऽयु: ॥२४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
उप नः सुतमा गहि सोममिन्द्र गवाशिरम्। हरिभ्यां यस्ते अस्मयुः ॥
स्वर रहित पद पाठउप । न: । सुतम् ।आ । गहि । सोमम् । इन्द्र । गोऽआशिरम् ॥ हरिऽभ्याम् । य: । ते । अस्मऽयु: ॥२४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 24; मन्त्र » 1
विषय - प्रशस्त इन्द्रियाश्वोंवाला
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो! (न:) = हमारे (सतम्) = उत्पन्न हुए-हुए सोम को (उप आगहि) = समीपता से प्राप्त होइए। आपकी उपासना से ही हम इस सोम का रक्षण कर पाएंगे। उस सोम को प्राप्त होइए जो (गवाशिरम्) = ज्ञान की वाणियों के द्वारा समन्तात् वासनाओं को शीर्ण करनेवाला है। २. हे प्रभो! (हरिभ्याम्) = प्रशस्त इन्द्रियों से युक्त (यः ते) = जो आपका रथ है, वह (अस्मयुः) = हमारी कामनावाला हो, अर्थात् हमें प्रशस्त इन्द्रियाश्वों से युक्त शरीर-रथ प्राप्त हो।
भावार्थ - प्रभु की उपासना से सोम का रक्षण होगा। सुरक्षित सोम ज्ञानवृद्धि व वासना विनाश का कारण बनेगा। उस समय हमारा शरीर-रथ प्रशस्त इन्द्रियाश्वों से युक्त होगा।
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