अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 24/ मन्त्र 3
इन्द्र॑मि॒त्था गिरो॒ ममाच्छा॑गुरिषि॒ता इ॒तः। आ॒वृते॒ सोम॑पीतये ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑म् । इ॒त्था । गिर॑: । मम॑ । अच्छ॑ । अ॒गु॒: । इ॒षि॒ता: । इ॒त: ॥ आ॒ऽवृते॑ । सोम॑ऽपीतये ॥२४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रमित्था गिरो ममाच्छागुरिषिता इतः। आवृते सोमपीतये ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रम् । इत्था । गिर: । मम । अच्छ । अगु: । इषिता: । इत: ॥ आऽवृते । सोमऽपीतये ॥२४.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 24; मन्त्र » 3
विषय - आवृते, सोमपीतये
पदार्थ -
१. (इत:) = यहाँ-हमारे गृह की यज्ञभूमि से (मम) = मेरी (गिरः) = स्तुतिरूप वाणियाँ (इषिता:) = हमसे प्रेरित हुई-हुई (इत्था) = सचमुच (इन्द्रम् अच्छा) = प्रभु को लक्ष्य करके (अगु:) = प्रभु की ओर जाती हैं। हम स्तुतिवाणियों द्वारा प्रभु का स्तवन करते हैं। २. हम यह स्तवन (आवृते) = प्रभु को अपनी ओर आवृत्त करने के लिए करते हैं। हम अपनी ओर प्रभु की आवृत्ति (सोमपीतये) = सोम के रक्षण के लिए चाहते हैं।
भावार्थ - हम प्रभु-स्तवन करें। प्रभु को प्राप्त करने से हम सोम का रक्षण कर पाएंगे।
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