अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 24/ मन्त्र 7
इ॒ममि॑न्द्र॒ गवा॑शिरं॒ यवा॑शिरं च नः पिब। आ॒गत्या॒ वृष॑भिः सु॒तम् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मम् । इ॒न्द्र॒ । गोऽआ॑शिरम् । यव॑ऽआशिरम् । च॒ । न॒: । पि॒ब॒ ॥ आ॒ऽगत्य॑ । वृष॑ऽभि: । सु॒तम् ॥२४.७॥
स्वर रहित मन्त्र
इममिन्द्र गवाशिरं यवाशिरं च नः पिब। आगत्या वृषभिः सुतम् ॥
स्वर रहित पद पाठइमम् । इन्द्र । गोऽआशिरम् । यवऽआशिरम् । च । न: । पिब ॥ आऽगत्य । वृषऽभि: । सुतम् ॥२४.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 24; मन्त्र » 7
विषय - 'गवाशिर, यवाशिर' सोम इममिन्द्र
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = शत्रुविद्रावक प्रभो! (न:) = हमारे (इमम्) = इस (वृषभिः) = अपने अन्दर शक्ति का सेचन करनेवाले पुरुषों के द्वारा (सुतम्) = उत्पन्न किये गये सोम को (आगत्य) = हमें प्राप्त होकर (पिब) = आप पीजिए। वृषा पुरुष अपने अन्दर सोम का सम्पादन करते हैं। प्रभु ही उसका उनके अन्दर रक्षण करते हैं, अतः ये प्रभु की उपासना में प्रवृत्त होते हैं। २. उस सोम का आप पान कीजिए जो (गवाशिरम) = ज्ञान की वाणियों के द्वारा समन्तात् वासनाओं को शीर्ण करनेवाला है तथा (यवाशिरम्) = [यु मिश्रणामिश्रणयोः] बुराइयों को दूर करने व अच्छाइयों को प्राप्त कराने के द्वारा सब अवाञ्छनीय तत्वों को विनष्ट करता है।
भावार्थ - प्रभु हमारे अन्दर होते हैं तो सोम का रक्षण करते हैं। यह सोम-ज्ञान की वाणियों के द्वारा वासनाओं को शीर्ण करता है तथा बुराइयों को दूर करके सब अच्छाइयों को प्राप्त कराता है।
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