अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 24/ मन्त्र 4
इन्द्रं॒ सोम॑स्य पी॒तये॒ स्तोमै॑रि॒ह ह॑वामहे। उ॒क्थेभिः॑ कु॒विदा॒गम॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑म् । सोम॑स्य । पी॒तये॑ । स्तोमै॑: । इ॒ह॒ । ह॒वा॒म॒है॒ ॥ उ॒क्थेभि॑: । कु॒वित् । आ॒ऽगम॑त् ॥२४.४॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रं सोमस्य पीतये स्तोमैरिह हवामहे। उक्थेभिः कुविदागमत् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रम् । सोमस्य । पीतये । स्तोमै: । इह । हवामहै ॥ उक्थेभि: । कुवित् । आऽगमत् ॥२४.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 24; मन्त्र » 4
विषय - स्तोमैः-उक्थेभिः
पदार्थ -
१. (इह) = यहाँ इस जीवन में (सोमस्य पीतये) = सोम के रक्षण के लिए (इन्द्रम्) = उस शत्रुविद्रावक प्रभु को (स्तोमैः) = स्तोत्रों के द्वारा (हवामहे) = पुकराते हैं। २. (उक्थेभि:) = ऊँचे से उच्चार्यमाण इन स्तोत्रों के द्वारा बे प्रभु (कुवित्) = अच्छी प्रकार (आगमत्) = हमें प्राप्त होते हैं। प्रभु-प्राप्ति होने पर काम आदि शत्रुओं का सम्भव ही नहीं रहता, अत: सोमपान सहज में ही हो जाता है।
भावार्थ - हम स्तोत्रों के द्वारा प्रभु की समीपता प्रास करते हैं। समीपस्थ प्रभु वासनाविनाश द्वारा सोम का रक्षण करते हैं।
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