अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 6/ मन्त्र 2
इन्द्र॑ क्रतु॒विदं॑ सु॒तं सोमं॑ हर्य पुरुष्टुत। पिबा वृ॑षस्व॒ तातृ॑पिम् ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । क्र॒तु॒ऽविद॑म् । सु॒तम् । सोम॑म् । ह॒र्य॒ । पु॒रु॒ऽस्तु॒त॒ ॥ पिब॑ । आ । वृ॒ष॒स्व॒ । ततृ॑पिम् ॥६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र क्रतुविदं सुतं सोमं हर्य पुरुष्टुत। पिबा वृषस्व तातृपिम् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र । क्रतुऽविदम् । सुतम् । सोमम् । हर्य । पुरुऽस्तुत ॥ पिब । आ । वृषस्व । ततृपिम् ॥६.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
विषय - क्रतुविदं, तातृपिम्
पदार्थ -
१. (इन्द्र) = हे जितेन्द्रिय पुरुष! तू (क्रतुविदम्) = शक्ति व ज्ञान के प्राप्त करानेवाले [विद् लाभे] (सुतम्) = रस-रुधिर-मांस-अस्थि-मज्जा-मेदस् व वीर्य' इस क्रम से पैदा किये गये (सोमम्) = सोम [वीर्य] को (हर्य) = चाहनेवाला बन । २. हे (पुरुष्टुत) = [पुरुष्टुतं यस्य] खब ही स्तवन करनेवाले जीव । तू (तातृपिम्) = तृप्ति देनेवाले इस सोम को (पिब) = पीनेवाला बन और (वृषस्व) = शक्तिशाली की तरह आचरण कर-शक्तिशाली बन।
भावार्थ - शरीर में सुरक्षित सोम शक्ति व ज्ञान को प्राप्त कराता है, एक अद्भुत तुप्ति का अनुभव कराता है। हम जितेन्द्रिय व प्रभु-स्तोता बनकर इसका शरीर में ही रक्षण करें।
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