अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 6/ मन्त्र 9
यद॑न्त॒रा प॑रा॒वत॑मर्वा॒वतं॑ च हू॒यसे॑। इन्द्रे॒ह तत॒ आ ग॑हि ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अ॒न्त॒रा । प॒रा॒ऽवत॑म् । अ॒र्वा॒ऽवत॑म् । च॒ । हू॒यसे॑ । इन्द्र॑ ॥ इ॒ह । तत॑: । आ । ग॒हि॒ ॥६.९॥
स्वर रहित मन्त्र
यदन्तरा परावतमर्वावतं च हूयसे। इन्द्रेह तत आ गहि ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । अन्तरा । पराऽवतम् । अर्वाऽवतम् । च । हूयसे । इन्द्र ॥ इह । तत: । आ । गहि ॥६.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 6; मन्त्र » 9
विषय - हृदय में प्रभु का दर्शन
पदार्थ -
१. 'परावत्' शब्द दूर देश के लिए आता है-यहाँ पर दयुलोक का संकेत करता है। 'अर्वावत्' समीप देश के लिए आता है-यहाँ यह पृथिवी का संकेत कर रहा है। इन दोनों के अन्तरा-बीच में अन्तरिक्षलोक है। हमारे जीवनों में [अध्यात्म में] मस्तिष्क घलोक है, शरीर पृथिवीलोक है। इन दोनों के बीच में हदय अन्तरिक्षलोक है। हे प्रभो! (यत्) = जब भी (परावतम् अर्वावतं च) = दयुलोक व पृथिवीलोक के (अन्तरा) = बीच में-अन्तरिक्ष में-हृदयान्तरिक्ष में आप (इयसे) = पुकारे जाते हैं तब हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं के विद्रावक प्रभो! आप (तत:) = तब (इह आगहि) = हमें यहाँ प्राप्त होइए। २. हृदय में प्रभु का ध्यान करने पर प्रभु हमें प्राप्त होते ही हैं।
भावार्थ - हम हृदय में प्रभु का ध्यान करें। यही हमारा प्रभु के साथ मिलकर बैठने का स्थान [सध-स्थ] है। प्रभु-प्राप्ति के दृढ़ व उत्तम निश्चयवाला यह 'सु-कक्ष' कनता है, जिसने प्रभु-प्राप्ति के लिए दृढ़ निश्चय कर लिया है-कमर कस ली है। यही अगले सूक्त का ऋषि है। अन्ततः [चतुर्थ मन्त्र में] यह 'विश्वामित्र' बनता है।
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