अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 6/ मन्त्र 8
अ॑र्वा॒वतो॑ न॒ आ ग॑हि परा॒वत॑श्च वृत्रहन्। इ॒मा जु॑षस्व नो॒ गिरः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒र्वा॒ऽवत॑: । न॒: । आ । ग॒हि॒ । प॒रा॒ऽवत॑: । च॒ । वृ॒त्र॒ऽह॒न् ॥ इ॒मा: । जु॒ष॒स्व॒ । न॒: । गिर॑: ॥६.८॥
स्वर रहित मन्त्र
अर्वावतो न आ गहि परावतश्च वृत्रहन्। इमा जुषस्व नो गिरः ॥
स्वर रहित पद पाठअर्वाऽवत: । न: । आ । गहि । पराऽवत: । च । वृत्रऽहन् ॥ इमा: । जुषस्व । न: । गिर: ॥६.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 6; मन्त्र » 8
विषय - अर्वावत:, परावत:
पदार्थ -
१. हे (वृत्रहन्) = ज्ञान को आवरणभूत वासनाओं को विनष्ट करनेवाले प्रभो! आप (अर्वावत:) = समीप के प्रदेश के हेतु से-इहलोक के हेतु से, अर्थात् अभ्युदय के हेतु से (न:) = हमें (आगहि) = प्राप्त होइए (च) = और (परावतः) = दूर देश के हेतु से-परलोक के हेतु से, अर्थात् नि:श्रेयस के हेतु से हमें प्राप्त होइए। आपने ही हमें 'अभ्युदय व निःश्रेयस' प्राप्त कराना है। २. आप (इमा:) = इन (न:) = हमारी-हमसे की गई गिरः-स्तुतिवाणियों को (जुषस्व) = प्रीतिपूर्वक सेवन कीजिए। हमारे द्वारा की गई स्तुतिवाणियाँ हमें आपका प्रिय बनाएँ। वस्तुत: इनसे ही प्रेरणा लेकर हमें जीवन में आगे बढ़ना है और आपके अनुरूप बनने का प्रयत्न करना है।
भावार्थ - हम प्रभु-स्तवन करें। प्रभु वासना-विनाश के द्वारा हमें 'अभ्युदय व नि:श्रेयस' प्राप्त कराएँ।
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