अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 6/ मन्त्र 7
अ॒भि द्यु॒म्नानि॑ व॒निन॒ इन्द्रं॑ सचन्ते॒ अक्षि॑ता। पी॒त्वी सोम॑स्य वावृधे ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । द्यु॒म्नानि॑ । व॒निन॑: । इ॒न्द्र॑म् । स॒च॒न्ते॒ । अक्षि॑ता । पी॒त्वी॒ । सोम॑स्य । व॒वृ॒धे॒ ॥६.७॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि द्युम्नानि वनिन इन्द्रं सचन्ते अक्षिता। पीत्वी सोमस्य वावृधे ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । द्युम्नानि । वनिन: । इन्द्रम् । सचन्ते । अक्षिता । पीत्वी । सोमस्य । ववृधे ॥६.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 6; मन्त्र » 7
विषय - सोम-रक्षण व प्रभु-प्राप्ति
पदार्थ -
१. (वनिन:) = सम्भजनशील उपासक (अक्षिता दयुम्नानि अभि) = न क्षीण होनेवाली ज्ञान ज्योतियों की ओर चलते हैं। ज्ञान की ओर चलते हुए ये (इन्द्रं सचन्ते) = परमैश्वर्यशाली प्रभु को प्राप्त करते हैं। २. यह उपासक (सोमस्य पीत्वी) = शरीर में उत्पन्न सोम का रक्षण करता हुआ (वावृधे) = निरन्तर वृद्धि को प्राप्त करता है।
भावार्थ - हम सोम-रक्षण द्वारा ज्ञानाग्नि को दीस करके, ज्ञानवृद्धि करते हुए प्रभु को प्राप्त करें।
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