अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 15/ मन्त्र 1
इन्द्र॑म॒हं व॒णिजं॑ चोदयामि॒ स न॒ ऐतु॑ पुरए॒ता नो॑ अस्तु। नु॒दन्नरा॑तिं परिप॒न्थिनं॑ मृ॒गं स ईशा॑नो धन॒दा अ॑स्तु॒ मह्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑म् । अ॒हम् । व॒णिज॑म् । चो॒द॒या॒मि॒ । स: । न॒: । आ । ए॒तु॒ । पु॒र॒:ऽए॒ता । न॒: । अ॒स्तु॒ । नु॒दन् । अरा॑तिम् । प॒रि॒ऽप॒न्थिन॑म् । मृ॒गम् । स: । ई॒शा॑न: । ध॒न॒ऽदा: । अ॒स्तु॒ । मह्य॑म् ॥१५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रमहं वणिजं चोदयामि स न ऐतु पुरएता नो अस्तु। नुदन्नरातिं परिपन्थिनं मृगं स ईशानो धनदा अस्तु मह्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रम् । अहम् । वणिजम् । चोदयामि । स: । न: । आ । एतु । पुर:ऽएता । न: । अस्तु । नुदन् । अरातिम् । परिऽपन्थिनम् । मृगम् । स: । ईशान: । धनऽदा: । अस्तु । मह्यम् ॥१५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 15; मन्त्र » 1
विषय - 'महान् वणिक'इन्द्र
पदार्थ -
१. (अहम्) = मैं (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली (बणिजम्) = महान् वाणिज्यकर्ता प्रभु को [देहि मे ददामि ते०-यजुः०] (चोदयामि) - इस बात के लिए प्रेरित करता हूँ कि (सः) = वह (न:) = हमें (ऐतु) = प्राप्त हो और प्राप्त होकर हमारा (पुरः एता) = आगे चलनेवाला-पथ-प्रदर्शक हो। हम अपने सब व्यवहार प्रभु-स्मरणपूर्वक करें। २. (अरातिम्-वाणिज्य) = विघातक शत्रुओं को (परिपन्थिनम्) = मार्गनिरोधक चोरों को और (मृगम्) = व्याघ्र आदि को भी (नुदन्) = हमारे मार्ग से दूर करते हुए ये (ईशान:) = नियन्ता ईश्वर (महाम्) = मेरे लिए (धनदाः,अस्तु) = वाणिज्यलाभरूप धनों के प्रदाता हों। ३. प्रभु सबसे बड़े वणिक हैं। जैसा हम कर्म करते हैं, वैसा ही वे फल देते हैं-न कम, न अधिक। इस प्रभु का स्मरण हमें वाणिज्य में सफल करनेवाला हो। यदि हम प्रभु-स्मरण करेंगे तो कुटिलता व छल-छिद्र से दूर रहेंगे।
भावार्थ -
हम प्रभु-स्मरणपूर्वक व्यापार करें, प्रभु ही हमारे पथ-प्रदर्शक हों। हमारे मार्ग में 'अराति, परिपन्थी व मृग' विघातक न हों।
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