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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 15

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 15/ मन्त्र 7
    सूक्त - अथर्वा देवता - प्रजापतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वाणिज्य

    उप॑ त्वा॒ नम॑सा व॒यं होत॑र्वैश्वानर स्तु॒मः। स नः॑ प्र॒जास्वा॒त्मसु॒ गोषु॑ प्रा॒णेषु॑ जागृहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ । त्वा॒ । नम॑सा । व॒यम् । होत॑: । वै॒श्वा॒न॒र । स्तु॒म: । स: । न॒: । प्र॒ऽजासु॑ । आ॒त्मऽसु॑ । गोषु॑ । प्रा॒णेषु॑ । जा॒गृ॒हि॒ ॥१५.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप त्वा नमसा वयं होतर्वैश्वानर स्तुमः। स नः प्रजास्वात्मसु गोषु प्राणेषु जागृहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उप । त्वा । नमसा । वयम् । होत: । वैश्वानर । स्तुम: । स: । न: । प्रऽजासु । आत्मऽसु । गोषु । प्राणेषु । जागृहि ॥१५.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 15; मन्त्र » 7

    पदार्थ -

    १. हे (होत:) = सब पदार्थों के देनेवाले (वैश्वानर) = सब मनुष्यों का हित करनेवाले प्रभो! (वयम्) = हम (त्वा) = आपको प्राप्त होकर (नमसा) = नमन के साथ (उपस्तुमः) = स्तुत करते हैं। प्रात:-सायं नम्रतापूर्वक आपकी स्तुति करते हैं। २. (स:) = वे आप (न:) = हमारी (प्रजास) = प्रजाओं के विषय में (आत्मसु) = हमारे विषय में तथा (गोषु, प्राणेषु) = हमारी इन्द्रियों और प्राणों के विषय में (जागृहि) = सदा जाग्रत् रहिए। इनका रक्षण आपको ही तो करना है।

    भावार्थ -

    हम प्रात:-सायं नम्रता से प्रभुका स्तवन करें, प्रभु ही हमारी सन्तानों व हमारा रक्षण करनेवाले हैं।

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