अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 15/ मन्त्र 3
इ॒ध्मेना॑ग्न इ॒च्छमा॑नो घृ॒तेन॑ जु॒होमि॑ ह॒व्यं तर॑से॒ बला॑य। याव॒दीशे॒ ब्रह्म॑णा॒ वन्द॑मान इ॒मां धियं॑ शत॒सेया॑य दे॒वीम् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ध्मेन॑ । अ॒ग्ने॒ । इ॒च्छमा॑न: । घृ॒तेन॑ । जु॒होमि॑ । ह॒व्यम् । तर॑से । बला॑य । याव॑त् । ईशे॑ । ब्रह्म॑णा । वन्द॑मान: । इ॒माम् । धिय॑म् । श॒त॒ऽसेया॑य । दे॒वीम् ॥१५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
इध्मेनाग्न इच्छमानो घृतेन जुहोमि हव्यं तरसे बलाय। यावदीशे ब्रह्मणा वन्दमान इमां धियं शतसेयाय देवीम् ॥
स्वर रहित पद पाठइध्मेन । अग्ने । इच्छमान: । घृतेन । जुहोमि । हव्यम् । तरसे । बलाय । यावत् । ईशे । ब्रह्मणा । वन्दमान: । इमाम् । धियम् । शतऽसेयाय । देवीम् ॥१५.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 15; मन्त्र » 3
विषय - 'अग्निहोत्र व प्रभु-वन्दन' से व्यवहार में कुशलता
पदार्थ -
१. हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (इच्छमान:) = वाणिज्यलाभ की कामना करता हुआ मैं (इध्मेन) = इन्धनसाधन समित् समूह से [समिधाओं से] (घृतेन) = घृत के साथ (हव्यम्) = हवि को (जुहोमि) = आहुत करता हैं, जिससे मुझमें (तरसे) = वेग-शीघ्र-गमनशक्ति हो तथा (बलाय) = शरीर का समाधैं बना रहे। २. (यावत्) = जितना-जितना मैं (ईशे) = ईश व धन-सम्पन्न बनता हूँ, उतना ही (ब्रह्मणा) = स्तोत्ररूप मन्त्रों से (वन्दमान:) = आपका वन्दन करता हुआ (इमाम्) = इस (देवीम्) = द्योतमान व्यवहार-कुशल (धियम्) = बुद्धि को (शतसेयाय) = असंख्यात धन लाभ के लिए करता हूँ। प्रभु-स्मरणपूर्वक मुझे वह व्यवहार कुशल बुद्धि प्राप्त होती है, जोकि मेरे लिए खूब लाभ का साधन बनती है।
भावार्थ -
अग्निहोत्र से मैं शरीर में वेग व बल का सम्पादन करता हूँ। प्रभु-वन्दन से बुद्धि को व्यवहार-कुशल बनता हूँ, इसप्रकार खुब ही धन-लाभवाला होता हूँ।
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