अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 15/ मन्त्र 6
येन॒ धने॑न प्रप॒णं चरा॑मि॒ धने॑न देवा॒ धन॑मि॒च्छमा॑नः। तस्मि॑न्म॒ इन्द्रो॒ रुचि॒मा द॑धातु प्र॒जाप॑तिः सवि॒ता सोमो॑ अ॒ग्निः ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑ । धने॑न । प्र॒ऽप॒णम् । चरा॑मि । धने॑न । दे॒वा॒: । धन॑म् । इ॒च्छमा॑न: । तस्मि॑न् । मे॒ । इन्द्र॑: । रुचि॑म् । आ । द॒धा॒तु॒ । प्र॒जाऽप॑ति: । स॒वि॒ता । सोम॑:। अ॒ग्नि: ॥१५.६॥
स्वर रहित मन्त्र
येन धनेन प्रपणं चरामि धनेन देवा धनमिच्छमानः। तस्मिन्म इन्द्रो रुचिमा दधातु प्रजापतिः सविता सोमो अग्निः ॥
स्वर रहित पद पाठयेन । धनेन । प्रऽपणम् । चरामि । धनेन । देवा: । धनम् । इच्छमान: । तस्मिन् । मे । इन्द्र: । रुचिम् । आ । दधातु । प्रजाऽपति: । सविता । सोम:। अग्नि: ॥१५.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 15; मन्त्र » 6
विषय - इन्द्रः, प्रजापतिः, सविता, सोमः, अग्निः
पदार्थ -
१. (येन) = जिस (धनेन) = मूलधन से (प्रपणम् चरामि) = क्रय करता हूँ, हे (दवा:) = व्यवहारसाधक देवो! इस (धनेन) = धन से (धनम् इच्छमान:) = वृद्धियुक्त धन को चाहता हुआ मैं ऐसा करता हूँ। २. (तस्मिन्) = उस व्यवहार में (इन्द्र:) = जितेन्द्रियता की देवता मे मेरी (रुचिम्) = रुचि को (आदधातु) = धारण करे, जितेन्द्रिय बनकर मैं उस व्यापार को रुचि से करूँ । (प्रजापतिः) = प्रजा का रक्षक देव, अर्थात प्रजा के सन्तान के पालन की भावना मुझे उसमें रुचिवाला करे। इसीप्रकार (सविता) = निर्माण की भावना, (सोमः) = सौम्यता का भाव और (अग्नि:) = प्रगति की भावना मुझे उसमें रुचिवाला करे । 'सोमः' शब्द सौम्यता का प्रतिपादन करता हुआ यह स्पष्ट कर रहा है कि एक व्यापारी को अवश्य सौम्य स्वभाव का बनना है, उन स्वभाव नहीं।
भावार्थ -
मैं जितेन्द्रिय, सन्तान के रक्षण की भावनावाला, निर्माता, सौम्य व प्रगतिवाला बनकर अपने व्यापार को रुचि से करूँ।
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