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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 11

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 11/ मन्त्र 11
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - इन्द्रः, अनड्वान् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अनड्वान सूक्त

    द्वाद॑श॒ वा ए॒ता रात्री॒र्व्रत्या॑ आहुः प्र॒जाप॑तेः। तत्रोप॒ ब्रह्म॒ यो वेद॒ तद्वा अ॑न॒डुहो॑ व्र॒तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्वाद॑श । वै । ए॒ता: । रात्री॑: । व्रत्या॑: । आ॒हु॒: । प्र॒जाऽप॑ते: । तत्र॑ । उप॑ । ब्रह्म॑ । य: । वेद॑ । तत् । वै । अ॒न॒डुह॑: । व्र॒तम् ॥११.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्वादश वा एता रात्रीर्व्रत्या आहुः प्रजापतेः। तत्रोप ब्रह्म यो वेद तद्वा अनडुहो व्रतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्वादश । वै । एता: । रात्री: । व्रत्या: । आहु: । प्रजाऽपते: । तत्र । उप । ब्रह्म । य: । वेद । तत् । वै । अनडुह: । व्रतम् ॥११.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 11; मन्त्र » 11

    पदार्थ -

    १. वैदिक साहित्य में 'रात्रि' अन्धकार का प्रतीक है, 'दिन' प्रकाश का। दिन का करनेवाला सूर्य'ज्ञानसूर्य' का प्रतीक है। बृहस्पति को 'द्वादशार्चि' अथवा 'द्वादशांशु' कहते हैं, अर्थात् जिसकी 'दसों इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि' ये बारह-के-बारह प्रकाशमय हो गये हैं। जब तक मनुष्य के ये बारह-के-बारह प्रकाशमय न हो जाएँ जब तक व्रतमय जीवन बिताते हुए इन्हें उज्वल करने का प्रयत्न करना है। मन्त्र में कहते हैं कि (एता:) = इन (द्वादश) = बारह (रात्री:) = रात्रियों को (वा) = निश्चय से (प्रजापतेः व्रत्या:) = प्रजापति के व्रतवाला (आहु:) = कहते हैं। प्रजापति ही ब्रह्मा हैं। इनके व्रतवाला' का भाव यह है कि ब्रह्मा की भाँति चारों वेदों का विद्वान् बनना-मन, बुद्धि व इन्द्रियों को एकमात्र ज्ञान-प्राप्ति के व्रत में लगाना। २. (तत्र) = वहाँ-उन बारह रात्रियों में (यः) = जो (ब्रह्म) = ज्ञान को (उपवेद) = आचार्य के समीप रहकर प्राप्त करता है (तत्) = वह (वा) = निश्चय से (अनुडूहः व्रतम्) = उस संसार-सञ्चालक प्रभु का [प्रभु-सम्बद्ध] व्रत हो जाता है।

    भावार्थ -

    हमें 'प्रभु के व्रत का पालन करते हुए 'इन्द्रियों, मन व बुद्धि को प्रकाशमय बनाना चाहिए।

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