अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 11/ मन्त्र 10
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - इन्द्रः, अनड्वान्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अनड्वान सूक्त
प॒द्भिः से॒दिम॑व॒क्राम॒न्निरां॒ जङ्घा॑भिरुत्खि॒दन्। श्रमे॑णान॒ड्वान्की॒लालं॑ की॒नाश॑श्चा॒भि ग॑छतः ॥
स्वर सहित पद पाठप॒त्ऽभि: । से॒दिम् । अ॒व॒ऽक्राम॑न् । इरा॑म् । जङ्घा॑भि: । उ॒त्ऽखि॒दन् । श्रमे॑ण । अ॒न॒ड्वान् । की॒लाल॑म् । की॒नाश॑: । च॒ । अ॒भि । ग॒च्छ॒त॒: ॥११.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
पद्भिः सेदिमवक्रामन्निरां जङ्घाभिरुत्खिदन्। श्रमेणानड्वान्कीलालं कीनाशश्चाभि गछतः ॥
स्वर रहित पद पाठपत्ऽभि: । सेदिम् । अवऽक्रामन् । इराम् । जङ्घाभि: । उत्ऽखिदन् । श्रमेण । अनड्वान् । कीलालम् । कीनाश: । च । अभि । गच्छत: ॥११.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 11; मन्त्र » 10
विषय - अनड्वान् कीनाशः च
पदार्थ -
१. एक किसान बैलों द्वारा हल चलाता हुआ भूमि जोतता है, उस समय (पद्धिः) = अपने चारों पाँवों से (सेदिम्) = अवसान-[विनाश]-कारी अलक्ष्मी को (अवक्रामन्) = पाँवों तले रौंदता हुआ (इराम्) = भूमि को (जङ्घाभि:) = जाँघों से कर्षण द्वारा (उत्खिदत्) = उद्भिन्न करता हुआ यह (अनान्) = बैल (कीनाश: च) = और किसान (श्रमेण) = श्रम के द्वारा (कीलालम्) = अन्न को (अभिगच्छतः) = प्रास होते हैं। प्रभु श्रम करने पर ही अन्न प्राप्त कराते हैं। जैसे बैल के द्वारा श्रम होने पर ही किसान अन्न पाता है, इसीप्रकार 'प्रभु बिना श्रम के हमें खिलाते रहेंगे' ऐसी बात नहीं है।
भावार्थ -
श्रम करनेवाले के योगक्षेम को प्रभु अवश्य चलाते हैं।
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