अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 11/ मन्त्र 2
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - इन्द्रः, अनड्वान्
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अनड्वान सूक्त
अ॑न॒ड्वानिन्द्रः॒ स प॒शुभ्यो॒ वि च॑ष्टे त्र॒यां छ॒क्रो वि मि॑मीते॒ अध्व॑नः। भू॒तं भ॑वि॒ष्यद्भुव॑ना॒ दुहा॑नः॒ सर्वा॑ दे॒वानां॑ चरति व्र॒तानि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न॒ड्वान् । इन्द्र॑: । स: । प॒शुऽभ्य॑: । वि । च॒ष्टे॒ । त्र॒यान् । श॒क्र: । वि । मि॒मी॒ते॒ । अध्व॑न: । भू॒तम् । भ॒वि॒ष्यत् । भुव॑ना । दुहा॑न: । सर्वा॑ । दे॒वाना॑म् । च॒र॒ति॒ । व्र॒तानि॑ ॥११.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अनड्वानिन्द्रः स पशुभ्यो वि चष्टे त्रयां छक्रो वि मिमीते अध्वनः। भूतं भविष्यद्भुवना दुहानः सर्वा देवानां चरति व्रतानि ॥
स्वर रहित पद पाठअनड्वान् । इन्द्र: । स: । पशुऽभ्य: । वि । चष्टे । त्रयान् । शक्र: । वि । मिमीते । अध्वन: । भूतम् । भविष्यत् । भुवना । दुहान: । सर्वा । देवानाम् । चरति । व्रतानि ॥११.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 11; मन्त्र » 2
विषय - सर्वद्रष्टा, विधाता
पदार्थ -
१. (अनड्वान्) = यह संसार-शकट का वहन करनेवाला प्रभु (इन्द्र:) = परमैश्वर्यशाली है। (सः) = वह (पशभ्यः विचष्टे) = सब प्राणियों का ध्यान करता है [looks after] | वह (शक्र:) = सर्वशक्तिमान् प्रभु (त्रयान् अध्वन:) = तीन मार्गों को (विमिमीते) = निर्मित करता है। 'देवयान, पित्यान व जायस्व नियस्व' नामक तीन ही मार्ग हैं, जिनसे यह संसार चलता है। निष्काम कर्मवाले देवयान मार्ग से जाते हैं, सकाम कर्मवाले पितृयान से तथा शास्त्रविरुद्ध कर्म करनेवाले व्यक्ति 'जायस्व नियस्व मार्गवाले होते हैं। २. यह अनड्रान् प्रभु' (भूतम्) = भूतकाल में (भविष्यत्) = भविष्यकाल में तथा (भुवना) = वर्तमान में होनेवाले सब पदार्थों का (दुहान:) = प्रपूरण करता हुआ (देवानाम्) = देवों के (सर्वा व्रतानि) = सब व्रतों को चरति-पुरा करता है। सूर्यादि सब देवों के व्रतों का पालन वे प्रभु ही कर रहे हैं। उसी के शासन में ब्रह्माण्ड के सब पदार्थ गति कर रहे हैं।
भावार्थ -
प्रभु सभी प्राणियों का ध्यान करते हैं। प्रभु ने कर्मानुसार जीवों के तीन भाग किये हैं-[क] देवयान से जानेवाले, [ख] पितृयान से जानेवाले, [ग]'जायस्व-नियस्व' की गतिवाले। सब लोकों का पूरण प्रभु ही करते हैं। सूर्यादि सब देव प्रभु के शासन में चल रहे हैं|
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