अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 11/ मन्त्र 3
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - इन्द्रः, अनड्वान्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अनड्वान सूक्त
इन्द्रो॑ जा॒तो म॑नु॒ष्ये॑ष्व॒न्तर्घ॒र्मस्त॒प्तश्च॑रति॒ शोशु॑चानः। सु॑प्र॒जाः सन्त्स उ॑दा॒रे न स॑र्ष॒द्यो नाश्नी॒याद॑न॒डुहो॑ विजा॒नन् ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑: । जा॒त: । म॒नु॒ष्ये᳡षु । अ॒न्त: । घ॒र्म: । त॒प्त: । च॒र॒ति॒ । शोशु॑चान: । सु॒ऽप्र॒जा: । सन् । स: । उ॒त्ऽआ॒रे । न । स॒र्ष॒त् । य: । न । अ॒श्नी॒यात् । अ॒न॒डुह॑: । वि॒ऽजा॒नन् ॥११.३॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रो जातो मनुष्येष्वन्तर्घर्मस्तप्तश्चरति शोशुचानः। सुप्रजाः सन्त्स उदारे न सर्षद्यो नाश्नीयादनडुहो विजानन् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र: । जात: । मनुष्येषु । अन्त: । घर्म: । तप्त: । चरति । शोशुचान: । सुऽप्रजा: । सन् । स: । उत्ऽआरे । न । सर्षत् । य: । न । अश्नीयात् । अनडुह: । विऽजानन् ॥११.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 11; मन्त्र » 3
विषय - प्रभु-ज्ञान, अनासक्ति व मोक्ष
पदार्थ -
१. (इन्द्रः) = यह परमैश्वर्यशाली प्रभु (मनुष्येषु अन्तः जातः) = विचारशील मनुष्यों के हृदयों में प्रादर्भूत होता है। (तप्तः धर्मः शोशचान:) = [तप दीप्ती] दीप्त सूर्य के समान चमकता हुआ यह प्रभु (चरति) = सब प्रजाओं में विचरण करता है। हृदय पर वासना के आवरण के कारण ही हम प्रभु को नहीं देख पाते। २. (य:) = जो (अनडुहः विजानन्) = संसार-शकट के सञ्चालक प्रभु को जानता हुआ (न अश्नीयात्) = प्रकृति के भोगों को भोगने में नहीं फँस जाता, (स:) = वह (सुप्रजा: सन्) = इस जीवन में उत्तम प्रजाओं-[सन्तानों व विकासों]-वाला होता हुआ (उदारे) = [उत् आरे] शरीर से आत्मा के बाहर होने पर (न सर्षत्) = फिर भटकता नहीं, अर्थात् जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होकर ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है।
भावार्थ -
प्रभु हमारे हृदय-गगन में देदीप्यमान सूर्य की भाँति चमक रहे हैं। प्रभु को जानता हुआ जो भी मनुष्य प्रकृति के भोगों में नहीं फँसता वह इस जन्म में उत्तम शक्तियों के विकास व सन्तानोंवाला होता हुआ शरीर छूटने पर सुदीर्घकाल तक दुबारा शरीर नहीं लेता-मुक्त हो जाता है।
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