अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 1/ मन्त्र 3
सूक्त - बृहद्दिवोऽथर्वा
देवता - वरुणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अमृता सूक्त
यस्ते॒ शोका॑य त॒न्वं॑ रि॒रेच॒ क्षर॒द्धिर॑ण्यं॒ शुच॒योऽनु॒ स्वाः। अत्रा॑ दधेते अ॒मृता॑नि॒ नामा॒स्मे वस्त्रा॑णि॒ विश॒ एर॑यन्ताम् ॥
स्वर सहित पद पाठय: । ते॒ । शोका॑य । त॒न्व᳡म् । रि॒रेच॑ । क्षर॑त् । हिर॑ण्यम् । शुच॑य: । अनु॑ । स्वा: । अत्र॑ । द॒धे॒ते॒ इति॑ ।अ॒मृता॑नि। नाम॑ । अ॒स्मे इति॑ । वस्त्रा॑णि । विश॑: । आ । ई॒र॒य॒न्ता॒म् ॥१.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्ते शोकाय तन्वं रिरेच क्षरद्धिरण्यं शुचयोऽनु स्वाः। अत्रा दधेते अमृतानि नामास्मे वस्त्राणि विश एरयन्ताम् ॥
स्वर रहित पद पाठय: । ते । शोकाय । तन्वम् । रिरेच । क्षरत् । हिरण्यम् । शुचय: । अनु । स्वा: । अत्र । दधेते इति ।अमृतानि। नाम । अस्मे इति । वस्त्राणि । विश: । आ । ईरयन्ताम् ॥१.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
विषय - अमृतत्व व नैर्मल्य
पदार्थ -
१. हे प्रभो! (य:) = जो (ते) = आपकी (शोकाय) = दीप्ति को प्राप्त करने के लिए (तन्वं रिरेच) = अपने शरीर को शुद्ध कर डालता है-इसमें से सब मलों का रेचन कर डालता है, वह (हिरण्य क्षरत) = अपने अन्दर ज्योति व वीर्य को [हिरण्यं वै ज्योति:, हिरण्यं वै वीर्यम्] संचरित करता है। इसके जीवन में (स्वाः शचय:) = आत्मदीप्तियाँ (अनु) = अनुकूलता से गतिवाली होती हैं। २. (अत्र) = यहाँ-इस योगी [साधक] के जीवन में प्राण और अपान (अमृतानि) = नीरोगता का दधेते (नाम) = निश्चय से धारण करते हैं। (विश:) = शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग में प्रवेश करनेवाले ये प्राण (अस्मे) = हमारे लिए (वस्त्राणि) = इन 'अन्नमय, प्राणमय' आदि कोशरूप वस्त्रों को (एरयन्ताम्) = गति के द्वारा सर्वथा कम्पित करके दूरीकृत मलोंवाला करें-हमारे कोशरूप सब वस्त्र निर्मल हों।
भावार्थ -
हम हृदय में प्रभु की दीप्ति के लिए शरीरों को निर्मल करें-अपने अन्दर दीप्ति को सञ्चरित करें। आत्मदीति को देखने के लिए यत्नशील हों। प्राणापान हमें निर्मल व नीरोग बनाएँ।
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