अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 1/ मन्त्र 8
सूक्त - बृहद्दिवोऽथर्वा
देवता - वरुणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अमृता सूक्त
उ॒त पु॒त्रः पि॒तरं॑ क्ष॒त्रमी॑डे ज्ये॒ष्ठं म॒र्याद॑मह्वयन्त्स्व॒स्तये॑। दर्श॒न्नु ता व॑रुण॒ यास्ते॑ वि॒ष्ठा आ॒वर्व्र॑ततः कृणवो॒ वपूं॑षि ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । पु॒त्र: । पि॒तर॑म् । क्ष॒त्रम् । ई॒डे॒ । ज्ये॒ष्ठम् । म॒र्याद॑म् । अ॒ह्व॒य॒न् । स्व॒स्तये॑ । दर्श॑न् । नु । ता: । व॒रु॒ण॒ । या:। ते॒ । वि॒ऽस्था: । आ॒ऽवर्व्र॑तत: । कृ॒ण॒व॒: । वपूं॑षि ॥१.८॥
स्वर रहित मन्त्र
उत पुत्रः पितरं क्षत्रमीडे ज्येष्ठं मर्यादमह्वयन्त्स्वस्तये। दर्शन्नु ता वरुण यास्ते विष्ठा आवर्व्रततः कृणवो वपूंषि ॥
स्वर रहित पद पाठउत । पुत्र: । पितरम् । क्षत्रम् । ईडे । ज्येष्ठम् । मर्यादम् । अह्वयन् । स्वस्तये । दर्शन् । नु । ता: । वरुण । या:। ते । विऽस्था: । आऽवर्व्रतत: । कृणव: । वपूंषि ॥१.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 8
विषय - पुत्र की पिता से बल की याचना
पदार्थ -
१. (उत) = और (पुत्र:) = प्रभु का योग्य पुत्र बनता हुआ मैं (पितरम) = अपने पिता प्रभु से (क्षत्रम् ईडे) = बल की याचना करता है। ज्ञानी लोग उस (ज्येष्ठम्) = सर्वश्रेष्ठ (मर्यादम्) = सब मर्यादाओं का स्थापन करनेवाले प्रभु को (स्वस्तये) = कल्याण के लिए (अहयन्) = पुकारते हैं। २. हे (वरुण) = वरणीय प्रभो! (या:) = जो (ते) = आपकी (विष्ठा:) = व्यवस्थाएँ हैं, (नु) = निश्चय से (ता:) = उन्हें ये ज्ञानी पुरुष दर्शन देखते हैं। 'ब्रह्माण्ड में प्रत्येक पिण्ड को वे प्रभु किस प्रकार मर्यादा में चला रहे हैं'-इस बात को देखकर आश्चर्य ही होता है। इसीप्रकार हे प्रभो! आप ही (आवर्वतत:) = [आवृत् यङ्लुगन्तशत] कर्मफल के अनुसार विभिन्न योनियों में विचरनेवाले जीव के वषि-शरीरों को कृणव: करते हैं। जीवों को कर्मानुसार विविध शरीर आप ही प्राप्त कराते हैं।
भावार्थ -
हम प्रभु से बल की याचना करें। ब्रह्माण्ड में उस प्रभु की व्यवस्था को देखें और प्रभु को ही कर्मानुसार विविध शरीरों को प्राप्त करानेवाला जानें।
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