अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 1/ मन्त्र 1
सूक्त - बृहद्दिवोऽथर्वा
देवता - वरुणः
छन्दः - पराबृहती त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अमृता सूक्त
ऋध॑ङ्मन्त्रो॒ योनिं॒ य आ॑ब॒भूव॒मृता॑सु॒र्वर्ध॑मानः सु॒जन्मा॑। अद॑ब्धासु॒र्भ्राज॑मा॒नोऽहे॑व त्रि॒तो ध॒र्ता दा॑धार॒ त्रीणि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठऋध॑क्ऽमन्त्र: । योनि॑म् । य: । आ॒ऽब॒भूव॑ । अ॒मृत॑ऽअसु: । वर्ध॑मान: । सु॒ऽजन्मा॑ । अद॑ब्धऽअसु: । भ्राज॑मान:।अहा॑ऽइव । त्रि॒त: । ध॒र्ता । दा॒धा॒र॒ । त्रीणि॑ ॥१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋधङ्मन्त्रो योनिं य आबभूवमृतासुर्वर्धमानः सुजन्मा। अदब्धासुर्भ्राजमानोऽहेव त्रितो धर्ता दाधार त्रीणि ॥
स्वर रहित पद पाठऋधक्ऽमन्त्र: । योनिम् । य: । आऽबभूव । अमृतऽअसु: । वर्धमान: । सुऽजन्मा । अदब्धऽअसु: । भ्राजमान:।अहाऽइव । त्रित: । धर्ता । दाधार । त्रीणि ॥१.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
विषय - ऋधमन्त्र:, भ्राजमान:
पदार्थ -
१. वे प्रभु (ऋङ्मन्त्रो:) = प्रवृद्ध ज्ञानवाले-सर्वज्ञ हैं, (योनिम्) = संसार के मूलकारण प्रकृति को यः आबभूव-जिसने व्यास किया हुआ है, अमृतासु:-ये प्रभु अमर प्राणोंवाले व वर्धमानः सदा से बढ़े हुए हैं, सुजन्मा-ये प्रभु उत्तम शक्तियों के विकासवाले हैं-प्रभु अपने उपासकों को शक्तियों के विकासवाला बनाते हैं। २. अदब्धासुः-अहिंसित प्राणवाले [नि०३.९] ये प्रभु अहा इव भाजमान:-दिनों को प्रकट करनेवाले सूर्य के समान देदीप्यमान हैं। ये त्रितः [तीर्णतमो मेधया बभूव-निरु०९.६, त्रित: त्रिस्थान इन्द्रः, नि०८.२५] निरतिशय बुद्धिवाले व तीनों लोकों में व्यास प्रभु धर्ता-धारण करनेवाले हैं और त्रीणि दाधार-तीनों लोकों का धारण कर रहे हैं।
भावार्थ -
प्रवृद्ध ज्ञानवाले प्रभु का उपासन करता हुआ उपासक भी प्रभु की भौति ज्ञान, प्राणशक्ति ब अन्य शक्तियों के विकासवाला बनने का यत्न करता है। यह 'शरीर, मन व बुद्धि' इन तीनों का धारण करनेवाला होता है।
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