अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 40/ मन्त्र 8
सूक्त - शुक्रः
देवता - दिशः
छन्दः - पुरोऽतिशक्वरीपादयुग्जगती
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
ये दि॒शाम॑न्तर्दे॒शेभ्यो॒ जुह्व॑ति जातवेदः॒ सर्वा॑भ्यो दि॒ग्भ्योऽभि॒दास॑न्त्य॒स्मान्। ब्रह्म॒र्त्वा ते परा॑ञ्चो व्यथन्तां प्र॒त्यगे॑नान्प्रतिस॒रेण॑ हन्मि ॥
स्वर सहित पद पाठये । दि॒शाम् । अ॒न्त॒:ऽदे॒शेभ्य॑: । जुह्व॑ति । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । सर्वा॑भ्य: । दि॒क्ऽभ्य: । अ॒भि॒ऽदास॑न्ति । अ॒स्मान् । ब्रह्म॑ । ऋ॒त्वा । ते । परा॑ञ्च: । व्य॒थ॒न्ता॒म् । प्र॒त्यक् । ए॒ना॒न् । प्र॒ति॒ऽस॒रेण॑ । ह॒न्मि॒ ॥४०.८॥
स्वर रहित मन्त्र
ये दिशामन्तर्देशेभ्यो जुह्वति जातवेदः सर्वाभ्यो दिग्भ्योऽभिदासन्त्यस्मान्। ब्रह्मर्त्वा ते पराञ्चो व्यथन्तां प्रत्यगेनान्प्रतिसरेण हन्मि ॥
स्वर रहित पद पाठये । दिशाम् । अन्त:ऽदेशेभ्य: । जुह्वति । जातऽवेद: । सर्वाभ्य: । दिक्ऽभ्य: । अभिऽदासन्ति । अस्मान् । ब्रह्म । ऋत्वा । ते । पराञ्च: । व्यथन्ताम् । प्रत्यक् । एनान् । प्रतिऽसरेण । हन्मि ॥४०.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 40; मन्त्र » 8
विषय - सब दिशाओं से
पदार्थ -
१. हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो! ये-जो शत्रु (दिशाम् अन्तर्देशेभ्य:) = दिशाओं के अन्तर्देशों से जुह्वति-हमें खाने को आते हैं, (सर्वाभ्यः दिग्भ्यः) = सब दिशाओं से (अस्मान् अभिदासन्ति) = हमारा उपक्षय करते है, (ब्रह्मा) = उस सर्वव्यापक प्रभु की व्यापकता के स्मरण के भाव को (ऋत्वा) = प्रास होकर (ते) = वे शत्रु (पराञ्चः) = पराङ्मुख होकर (व्यथन्ताम्) = पीड़ित हों। २. (एनान्) = इन शत्रुओं को (प्रतिसरेण) =शरीरस्थ सोम के अङ्ग-प्रत्यङ्ग में सरण के द्वारा (प्रत्यग्) = पराङ्मुख करके (हन्मि) = नष्ट करता हूँ।
भावार्थ -
प्रभु की व्यापकता का स्मरण सब दिशाओं से आक्रमण करनेवाले शत्रुओं को विनष्ट करे।
सूचना -
इस सूक्त में काव्यमयी भाषा में आक्रामक शत्रुओं के विनाश का बड़ा सुन्दर संकेत है। विविध दिशाओं से काम-क्रोध आदि शत्रु हमपर आक्रमण करते हैं। इनसे अपने को बचाने के लिए इन दिशाओं में 'अग्नि, यम, वरुण, सोम, भूमि, वायु, सूर्य व ब्रह्म' रूप पहरेदारों को नियुक्त करना है। आगे बढ़ने की भावना ही 'अग्नि' है, नियन्त्रण-संयम का भाव 'यम' है। निषता 'वरुण' है। सौम्यता का भाव 'सोम' है। 'सब प्रणियों के कल्याण की कामना' ही भूमि है, क्रियाशीलता वायु है। ज्ञान का सूर्य 'सूर्य' है तो सर्वव्यापक प्रभु का स्मरण ही 'ब्रह्म' है। ये आठ वृत्तियों पहरेदार हैं, ये हमें शत्रुओं के आक्रमण से बचाती हैं।
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