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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 1

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 1/ मन्त्र 4
    सूक्त - बृहद्दिवोऽथर्वा देवता - वरुणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अमृता सूक्त

    प्र यदे॒ते प्र॑त॒रं पू॒र्व्यं गुः सदः॑सद आ॒तिष्ठ॑न्तो अजु॒र्यम्। क॒विः शु॒षस्य॑ मा॒तरा॑ रिहा॒णे जा॒म्यै धुर्यं॒ पति॑मेरयेथाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । यत् । ए॒ते । प्रऽत॒रम् । पू॒र्व्यम् । गु: । सद॑:ऽसद: । आ॒ऽतिष्ठ॑न्त: । अ॒जु॒र्यम् । क॒वि: । शु॒षस्य॑ । मा॒तरा॑ । रि॒हा॒णे इति॑ । जा॒म्यै । धुर्य॑म् । पति॑म् । आ । ई॒र॒ये॒था॒म् ॥१.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र यदेते प्रतरं पूर्व्यं गुः सदःसद आतिष्ठन्तो अजुर्यम्। कविः शुषस्य मातरा रिहाणे जाम्यै धुर्यं पतिमेरयेथाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । यत् । एते । प्रऽतरम् । पूर्व्यम् । गु: । सद:ऽसद: । आऽतिष्ठन्त: । अजुर्यम् । कवि: । शुषस्य । मातरा । रिहाणे इति । जाम्यै । धुर्यम् । पतिम् । आ । ईरयेथाम् ॥१.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १. (यत्) = जब (एते) = ये साधक लोग (प्रतरम्) = संसार-सागर से तरानेवाले (पूव्यम्) = पालन व पूरण करनेवालों में उत्तम उस प्रभु को (प्रगुः) = प्रकर्षेण जानेवाले होते हैं तब ये (सदासदः) = प्रत्येक शरीररूप घर में उस (अजुर्यम्) = कभी जीर्ण न होनेवाले परमेश्वर में (आतिष्ठन्त:) = स्थिर होनेवाले होते हैं। ये प्रत्येक प्राणी में उस प्रभु को देखते हैं। वे प्रभु को इस रूप में देखते हैं कि ये प्रभु (कविः) = सर्वज्ञ हैं। २. इसप्रकार सब प्राणियों में प्रभु को देखनेवाले पति-पत्नी (शुषस्य मातरा) = शत्रु-शोषक बल का निर्माण करनेवाले व (रिहाणे) = परस्पर प्रीतिबाले [रिह आस्वादने] होते हैं। ये जाम्यै-संसार को जन्म देनेवाली इस प्रकृति के (धुर्यं पतिम्)-सम्पूर्ण संसार के धारण में समर्थ उस पति प्रभु को एरयेथाम्-अपने हृदयों में प्रेरित करते हैं।

    भावार्थ -

    उस तारक, पालक प्रभु का उपासन करनेवाले लोग प्रत्येक प्राणी में उस अविनाशी प्रभु को देखते हैं। उसे सर्वज्ञ जानते हुए पति-पत्नी अपने में शत्र-शोषक बल का निर्माण करते हैं और परस्पर प्रीतिवाले होते हैं। ये इस प्रकृति के धुर्य पति उस प्रभु को ही अपने हृदयों में प्रेरित करते हैं उसी का ध्यान करते हैं।

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