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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 1

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 1/ मन्त्र 6
    सूक्त - बृहद्दिवोऽथर्वा देवता - वरुणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अमृता सूक्त

    स॒प्त म॒र्यादाः॑ क॒वय॑स्ततक्षु॒स्तासा॒मिदेका॑म॒भ्यं॑हु॒रो गा॑त्। आ॒योर्ह॑ स्क॒म्भ उ॑प॒मस्य॑ नी॒डे प॒थां वि॑स॒र्गे ध॒रुणे॑षु तस्थौ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒प्त । म॒र्यादा॑: । क॒वय॑: । त॒त॒क्षु॒: । तासा॑म् । इत् । एका॑म् । अ॒भि । अं॒हु॒र: । गा॒त् । आ॒यो: । ह॒ । स्क॒म्भ: । उ॒प॒मस्य॑ । नी॒डे । प॒थाम् । वि॒ऽस॒र्गे । ध॒रुणे॑षु । त॒स्थौ॒ ॥१.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सप्त मर्यादाः कवयस्ततक्षुस्तासामिदेकामभ्यंहुरो गात्। आयोर्ह स्कम्भ उपमस्य नीडे पथां विसर्गे धरुणेषु तस्थौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सप्त । मर्यादा: । कवय: । ततक्षु: । तासाम् । इत् । एकाम् । अभि । अंहुर: । गात् । आयो: । ह । स्कम्भ: । उपमस्य । नीडे । पथाम् । विऽसर्गे । धरुणेषु । तस्थौ ॥१.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 6

    पदार्थ -

    १. (कवयः) = क्रान्तदर्शी विद्वानों ने (सप्त) = सात (मर्यादा:) = मर्यादाएँ-पाप से बचने की व्यवस्थाएँ (ततक्षुः) = बनाई हैं, (तासाम्) = उनमें से जो (एकाम् इत्) = एक का भी (अभिगात्) = उल्लंघन करता है, वह (अंहुरः) = पापी होता है। २. (आयो: ह स्कम्भ:) = [आयु-wind] वायु, अर्थात् प्राणों [वायु: प्राणो भूत्वा नासिके प्राविशत्] को वश में करनेवाला-प्राणायाम का अभ्यासी पुरुष (उपमस्य) = अन्तिकतम-हदय में ही स्थित उस प्रभु के (नीडे) = आश्रय में (पथां विसर्गे) = विविध मार्गों के [विसर्ग:- abandonment] हो जाने पर (धरुणेषु) = धारणात्मक कर्मों में ही (तस्थौ) = स्थित होता है-अन्य बातों को छोड़कर धारणात्मक कर्मों में ही प्रवृत्त होता है। यास्क के शब्दों में सात छोड़ने योग्य बातें ये हैं-(स्तेयम्) = चोरी, (तल्पारोहण) = गुरु-शय्या पर आरोहण-बड़ों का निरादर, (ब्रह्महत्या) = ज्ञान का त्याग, (भ्रूणहत्या) = गर्भघात, सुरापान, दुष्कृत कर्म का फिर-फिर करना, पाप करके झूठ बोलना, अर्थात् उसे छिपाने का प्रयत्न करना'। इन सबको छोड़कर धारणात्मक कर्मों में ही स्थित होना चाहिए।

    भावार्थ -

    ज्ञानी पुरुषों ने सात मर्यादाएँ बना दी हैं। उन्हें तोड़ना पाप है। प्राणसाधना द्वारा मन को वशीभूत करनेवाला व्यक्ति प्रभु का स्मरण करता है और पापवृत्तियों को छोड़कर धारणात्मक कर्मों में ही प्रवृत्त रहता है।

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