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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 1

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 1/ मन्त्र 7
    सूक्त - बृहद्दिवोऽथर्वा देवता - वरुणः छन्दः - विराड्जगती सूक्तम् - अमृता सूक्त

    उ॒तामृता॑सु॒र्व्रत॑ एमि कृ॒ण्वन्नसु॑रा॒त्मा त॒न्वस्तत्सु॒मद्गुः॑। उ॒त वा॑ श॒क्रो रत्नं॒ दधा॑त्यू॒र्जया॑ वा॒ यत्सच॑ते हवि॒र्दाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । अ॒मृत॑ऽअसु: । व्रत॑: । ए॒मि॒ । कृ॒ण्वन् । असु॑: । आ॒त्मा । त॒न्व᳡: । तत् । सु॒मत्ऽगु॑: ।उ॒त । वा॒ । श॒क्र: । रत्न॑म् । दधा॑ति । ऊ॒र्जया॑ । वा॒ । यत् । सच॑ते । ह॒वि॒:ऽदा: ॥१.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उतामृतासुर्व्रत एमि कृण्वन्नसुरात्मा तन्वस्तत्सुमद्गुः। उत वा शक्रो रत्नं दधात्यूर्जया वा यत्सचते हविर्दाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । अमृतऽअसु: । व्रत: । एमि । कृण्वन् । असु: । आत्मा । तन्व: । तत् । सुमत्ऽगु: ।उत । वा । शक्र: । रत्नम् । दधाति । ऊर्जया । वा । यत् । सचते । हवि:ऽदा: ॥१.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 7

    पदार्थ -

    १. (उत) = और (अमृतासुः) = अविनाशी प्रभु को अपना प्राण समझनेवाला (व्रतः) = व्रतमय जीवनवाला मैं (कृण्वत्) = कर्म करता हुआ ही (एमि) = जीवन-यात्रा में चलता हूँ। असुरात्मा [असु+र] प्राणशक्ति का सञ्चार करनेवाले प्रभु को अपना आत्मा समझनेवाला यह साधक (तत) = तब (तन्व:) = इस शरीर को (सुमदगः) = [सुमत्-प्रशस्त] प्रशस्त इन्द्रियोंवाला बनाता है। प्रभु-स्मरण से इन्द्रियाँ विषय-वासनाओं से मलिन नहीं होती। २. (उत वा) = और निश्चय से (शुक्र:) = वह सर्वशक्तिमान् प्रभु (यत्) = अब-इस साधक के जीवन में (रत्नम्) = रमणीय तत्वों को दधाति धारण करते हैं तो (हविर्दा) = यह हवि देनेवाला-यज्ञशील व्यक्ति (वा) = निश्चय से (ऊर्जया सचते) = बल और प्राणशक्ति से युक्त होता है।

    भावार्थ -

    हम प्रभु को ही अपना प्राण समझें, प्रभु को ही अपनी आत्मा जानें। इससे हम प्रशस्त इन्द्रियोंवाले बनेंगे। प्रभु हममें रमणीय रत्नों को धारण करेंगे। हम यज्ञशील बनकर बल व प्राणशक्ति से सम्पन्न होंगे।

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