अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 20/ मन्त्र 11
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - वानस्पत्यो दुन्दुभिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुसेनात्रासन सूक्त
शत्रू॑षाण्नी॒षाड॑भिमातिषा॒हो ग॒वेष॑णः॒ सह॑मान उ॒द्भित्। वा॒ग्वीव॒ मन्त्रं॒ प्र भ॑रस्व॒ वाचं सांग्रा॑मजित्या॒येष॒मुद्व॑दे॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठश॒त्रू॒षाट् । नी॒षाट् । अ॒भि॒मा॒ति॒ऽस॒ह: । गो॒ऽएष॑ण: । सह॑मान: । उ॒त्ऽभित् । वा॒ग्वीऽइ॑व । मन्त्र॑म् । प्र । भ॒र॒स्व॒ । वाच॑म् । संग्रा॑मऽजित्याय । इष॑म् । उत् । व॒द॒ । इह॒ ॥२०.११॥
स्वर रहित मन्त्र
शत्रूषाण्नीषाडभिमातिषाहो गवेषणः सहमान उद्भित्। वाग्वीव मन्त्रं प्र भरस्व वाचं सांग्रामजित्यायेषमुद्वदेह ॥
स्वर रहित पद पाठशत्रूषाट् । नीषाट् । अभिमातिऽसह: । गोऽएषण: । सहमान: । उत्ऽभित् । वाग्वीऽइव । मन्त्रम् । प्र । भरस्व । वाचम् । संग्रामऽजित्याय । इषम् । उत् । वद । इह ॥२०.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 20; मन्त्र » 11
विषय - शत्रूषा नीषाट्
पदार्थ -
१.हे युद्धवाद्य! तू (शत्रूषाट्) = शत्रुओं को कुचल देनेवाला (नीषाद) = निश्चय से कुचल देनेवाला, (अभिमातिषाहः) = अभिमानी शत्रुओं का पराभव करनेवाला है। (गवेषणः) = राष्ट्रभूमि की रक्षा की कामनावाला [गो+इष], (अतएव सहमान:) = शत्रुओं का पराभविता व (उद्भित्) = उखाड़ फेंकनेवाला है। (वाग्वी मन्त्रं इव) = जैसे वाणी के द्वारा स्तुति करनेवाला मन्त्र को उच्चारित करता है, इसीप्रकार हे युद्धवाद्य! तू भी (वाचं प्रभरस्व) = वाणी का-शब्द का प्रकर्षेण भरण कर खूब उच्च शब्द कर और (इह) = यहाँ रणभूमि में (सांग्नामजित्याय) = संग्राम में विजय के लिए (इषम् उत् वद) = प्रकर्षेण प्रेरणा प्राप्त करा, तेरा शब्द योद्धाओं को उत्कृष्ट प्रेरणा दे और वे युद्धों में विजयी बने।
भावार्थ -
युद्धवाद्य शत्रुओं को कुचल डालता है और योद्धाओं को उत्कृष्ट प्रेरणा देकर युद्ध में विजयी बनाता है।
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