अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 20/ मन्त्र 12
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - वानस्पत्यो दुन्दुभिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुसेनात्रासन सूक्त
अ॑च्युत॒च्युत्स॒मदो॒ गमि॑ष्ठो॒ मृधो॒ जेता॑ पुरए॒तायो॒ध्यः। इन्द्रे॑ण गु॒प्तो वि॒दथा॑ निचिक्यद्धृ॒द्द्योत॑नो द्विष॒तां या॑हि॒ शीभ॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒च्यु॒त॒ऽच्युत् । स॒ऽमद॑: । गमि॑ष्ठ: । मृध॑: । जेता॑ । पु॒र॒:ऽए॒ता । अ॒यो॒ध्य: । इन्द्रे॑ण । गु॒प्त: । वि॒दथा॑ । नि॒ऽचिक्य॑त । हृ॒त्ऽद्योत॑न: । द्वि॒ष॒ताम् । या॒हि॒ । शीभ॑म् ॥२०.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
अच्युतच्युत्समदो गमिष्ठो मृधो जेता पुरएतायोध्यः। इन्द्रेण गुप्तो विदथा निचिक्यद्धृद्द्योतनो द्विषतां याहि शीभम् ॥
स्वर रहित पद पाठअच्युतऽच्युत् । सऽमद: । गमिष्ठ: । मृध: । जेता । पुर:ऽएता । अयोध्य: । इन्द्रेण । गुप्त: । विदथा । निऽचिक्यत । हृत्ऽद्योतन: । द्विषताम् । याहि । शीभम् ॥२०.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 20; मन्त्र » 12
विषय - अच्युतच्युत्
पदार्थ -
१. हे युद्धवाद्य । तू (अच्युतच्युत्) = दृढ़ शत्रुओं के भी पैर उखाड़ देनेवाला है, (समदः गमिष्ठा:) = हर्षयुक्त हुआ तू शत्रुओं के प्रति जानेवाला-उनपर आक्रमण करनेवाला है, (मृधः जेता) = संग्रामों का विजय करनेवाला (पुरः एता) = आगे बढ़नेवाला व (अयोध्यः) = युद्ध न करने योग्य है-तुझे जीतना किसी के लिए भी सम्भव नहीं। २. (इन्द्रेण) = शत्रुओं के विद्रावक सेनानी से तू (गुप्तः) = सुरक्षित हुआ है, (विदथा निचिक्यत्) = ज्ञातव्य कर्मों को जानता हुआ, अर्थात् योद्धाओं को उनके कर्तव्यकर्मों में प्रेरित करता हुआ तू (द्विषताम्) = शत्रुओं के हृद्द्योतन:-[द्योतते ज्वलतिकर्मा-१.१६] हदयों को सन्राप्त करनेवाला है, (शीभं याहि) = तू शीघ्रता से शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाला हो। तू बज उठ और योद्धा शत्रु पर आक्रमण करनेवाले हों।
भावार्थ -
यह युद्धवाद्य दृढ़ शत्रुओं को भी परास्त करनेवाला है-शत्रुओं के हृदय को सन्तप्त करनेवाला है। यह योद्धाओं को शत्रुसैन्य पर आक्रमण के लिए प्रेरित करता है।
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