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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 20

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 20/ मन्त्र 4
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - वानस्पत्यो दुन्दुभिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुसेनात्रासन सूक्त

    सं॒जय॒न्पृत॑ना ऊ॒र्ध्वमा॑यु॒र्गृह्या॑ गृह्णा॒नो ब॑हु॒धा वि च॑क्ष्व। दैवीं॒ वाचं॑ दुन्दुभ॒ आ गु॑रस्व वे॒धाः शत्रू॑णा॒मुप॑ भरस्व॒ वेदः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒म्ऽजय॑न् । पृत॑ना: । ऊ॒र्ध्वऽमा॑यु: । गृह्या॑: । गृ॒ह्णा॒न: । ब॒हु॒धा । वि । च॒क्ष्व॒ । दैवी॑म् । वाच॑म् । दु॒न्दु॒भे॒ । आ । गु॒र॒स्व॒ । वे॒धा: । शत्रू॑णाम् । उप॑ । भ॒र॒स्व॒ । वेद॑: ॥२०.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    संजयन्पृतना ऊर्ध्वमायुर्गृह्या गृह्णानो बहुधा वि चक्ष्व। दैवीं वाचं दुन्दुभ आ गुरस्व वेधाः शत्रूणामुप भरस्व वेदः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्ऽजयन् । पृतना: । ऊर्ध्वऽमायु: । गृह्या: । गृह्णान: । बहुधा । वि । चक्ष्व । दैवीम् । वाचम् । दुन्दुभे । आ । गुरस्व । वेधा: । शत्रूणाम् । उप । भरस्व । वेद: ॥२०.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 20; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १.हे दुन्दुभे! तू (पृतनाः संजयन्) = शत्रुओं को पराजित करता हुआ (ऊर्ध्वमायुः) = ऊँचे शब्दवाला (गृह्या गृहाणन:) ग्रहण के योग्य सब पदार्थों का ग्रहण करनेवाला (बहुधा विचक्ष्व) = बहुत प्रकार से राष्ट्र को देखनेवाला हो-राष्ट्र का रक्षण करनेवाला हो। २. हे (दुन्दुभे) = युद्धवाद्य ! तू (दैवीम्) = [दिव् विजिगीषा] शत्रु-विजय की कामनावाली (वाचम्) = वाणी को (आ गुरस्व) = चारों ओर घोषित कर। (वेधा:) = राष्ट्र का निर्माण करनेवाला बनकर (शत्रूणां वेदः) = शत्रुओं के धन का (उपभरस्व) = हरण करनेवाला हो।

    भावार्थ -

    यह युद्धवाध शत्रुसैन्यों का पराजय करे और शत्रुओं के धनों का अपहरण करके राष्ट्रकोश को भरनेवाला हो।

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