अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 20/ मन्त्र 8
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - वानस्पत्यो दुन्दुभिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुसेनात्रासन सूक्त
धी॒भिः कृ॒तः प्र व॑दाति॒ वाच॒मुद्ध॑र्षय॒ सत्व॑ना॒मायु॑धानि। इन्द्र॑मेदी॒ सत्व॑नो॒ नि ह्व॑यस्व मि॒त्रैर॒मित्राँ॒ अव॑ जङ्घनीहि ॥
स्वर सहित पद पाठधी॒भि: । कृ॒त: । प्र । व॒दा॒ति॒ । वाच॑म् । उत् । ह॒र्ष॒य॒ । सत्व॑नाम् । आयु॑धानि । इन्द्र॑ऽमेदी । सत्व॑न: । नि । ह्व॒य॒स्व॒ । मि॒त्रै: । अ॒मित्रा॑न् । अव॑ । ज॒ङ्घ॒नी॒हि॒ ॥२०.८॥
स्वर रहित मन्त्र
धीभिः कृतः प्र वदाति वाचमुद्धर्षय सत्वनामायुधानि। इन्द्रमेदी सत्वनो नि ह्वयस्व मित्रैरमित्राँ अव जङ्घनीहि ॥
स्वर रहित पद पाठधीभि: । कृत: । प्र । वदाति । वाचम् । उत् । हर्षय । सत्वनाम् । आयुधानि । इन्द्रऽमेदी । सत्वन: । नि । ह्वयस्व । मित्रै: । अमित्रान् । अव । जङ्घनीहि ॥२०.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 20; मन्त्र » 8
विषय - इन्द्रमेदी
पदार्थ -
१, (धीभिः कृतः) = बुद्धिपूर्वक बनाया हुआ-बुद्धिमान् शिल्पियों द्वारा निर्मित यह युद्धवाध (वाचं प्रवदाति) = ऊँचा शब्द करता है। हे युद्धवाद्य! तू (सत्वनाम्) = वीरों के (आयुधानि) = आयुधों को (उद्धर्षय) = ऊँचा उठा। तेरे शब्द से उत्साहित होकर वे अपने-अपने शस्त्रों को उठाएँ। २. (इन्द्रमेदी) = वीरों के साथ स्नेह करनेवाला तू (सत्वनः नियस्व) = वीर सैनिकों को युद्ध के लिए पुकार । (मित्रैः अमित्रान् अवजंघनीहि) = मित्रों के द्वारा अमित्रों को तू सुदूर भगानेवाला व उन्हें नष्ट करनेवाला हो।
भावार्थ -
कुशल शिल्पियों से बनाया हुआ यह युद्धवाद्य ऊँचा शब्द करता है। इसके शब्द को सुनकर वीर सैनिक अस्त्रों को उठाते हैं और शत्रुओं को दूर भगाने व नष्ट करनेवाले होते हैं।
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