अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 26/ मन्त्र 11
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - द्विपदा प्राजापत्या बृहती
सूक्तम् - नवशाला सूक्त
इन्द्रो॑ युनक्तु बहु॒धा पयां॑स्य॒स्मिन्य॒ज्ञे सु॒युजः॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑: । यु॒न॒क्तु॒ । ब॒हु॒ऽधा । वी॒र्या᳡णि । अ॒स्मिन् । य॒ज्ञे। सु॒ऽयुज॑: । स्वाहा॑ ॥२६.११॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रो युनक्तु बहुधा पयांस्यस्मिन्यज्ञे सुयुजः स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र: । युनक्तु । बहुऽधा । वीर्याणि । अस्मिन् । यज्ञे। सुऽयुज: । स्वाहा ॥२६.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 26; मन्त्र » 11
विषय - वीर्याणि
पदार्थ -
१. (सयुज:) = उत्तम कर्मों में प्रेरित करनेवाला (इन्द्रः) = शत्रुविद्रावक प्रभु (अस्मिन् यज्ञे) = इस जीवन-यज्ञ में (बहुधा) = बहुत प्रकार से (वीर्याणि) = वीर्यों को (युनक्तु) = हमारे साथ जोड़े। (स्वाहा) = हम उस इन्द्र के प्रति अपना समर्पण करते हैं।
भावार्थ -
हम जितेन्द्रिय बनते हुए वीर्य को अपने में सुरक्षित रक्खें।
सूचना -
गतमन्त्र में 'सोमः, पयांसि' शब्दों का प्रयोग संकेत करता है कि हम सौम्य भोजन ही करें। इस मन्त्र का 'इन्द्र: 'जितेन्द्रियता का द्योतक है। एवं, वीर्य-रक्षा के लिए 'सौम्य जीवन व जितेन्द्रियता' प्रमुख साधन हैं।
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