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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 26

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 26/ मन्त्र 5
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - मरुद्गणः छन्दः - द्विपदार्च्युष्णिक् सूक्तम् - नवशाला सूक्त

    छन्दां॑सि य॒ज्ञे म॑रुतः॒ स्वाहा॑ मा॒तेव॑ पु॒त्रं पि॑पृते॒ह यु॒क्ताः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    छन्दां॑सि । य॒ज्ञे । म॒रु॒त॒: । स्वाहा॑ । मा॒ताऽइ॑व । पु॒त्रम् । पि॒पृ॒त॒ । इ॒ह । यु॒क्ता: ॥२६.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    छन्दांसि यज्ञे मरुतः स्वाहा मातेव पुत्रं पिपृतेह युक्ताः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    छन्दांसि । यज्ञे । मरुत: । स्वाहा । माताऽइव । पुत्रम् । पिपृत । इह । युक्ता: ॥२६.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 26; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १. (यज्ञे) = इस जीवन-यज्ञ में (छन्दांसि) = वेदमन्त्र-ज्ञान को वाणियों तथा (मरुतः) = प्राण (स्वाहा) = सुहुत हों। मैं ज्ञान व प्राणसाधना के प्रति अपने को अर्पण करनेवाला बनूं। (इह) = इस जीवन-यज्ञ में (युक्ताः) = अप्रमत्त हुए-हुए तुम (पिपृत) = अपना इसीप्रकार पूरण करो (इव) = जैसेकि (माता पुत्रम्) = माता पुत्र का पालन व पूरण करती है।

    भावार्थ -

    इस जीवन-यज्ञ में हम अपने को ज्ञान-प्राप्ति व प्राणसाधना में लगाएँ, अप्रमत्त होकर अपना पालन व पूरण करें।

     

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