अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 26/ मन्त्र 7
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - विष्णुः
छन्दः - द्विपदा प्राजापत्या बृहती
सूक्तम् - नवशाला सूक्त
विष्णु॑र्युनक्तु बहु॒धा तपां॑स्य॒स्मिन्य॒ज्ञे सु॒युजः॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठविष्णु॑: । यु॒न॒क्तु॒ । ब॒हु॒ऽधा । तपा॑सि । अ॒स्मिन् । य॒ज्ञे । सु॒ऽयुज॑: । स्वाहा॑ ॥२६.७॥
स्वर रहित मन्त्र
विष्णुर्युनक्तु बहुधा तपांस्यस्मिन्यज्ञे सुयुजः स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठविष्णु: । युनक्तु । बहुऽधा । तपासि । अस्मिन् । यज्ञे । सुऽयुज: । स्वाहा ॥२६.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 26; मन्त्र » 7
पदार्थ -
१. (सुयुज:) = हमें उत्तम कर्मों में लगानेवाला (विष्णु:) = वह सर्वव्यापक प्रभु (अस्मिन् यज्ञे) = इस जीवन-यज्ञ में (बहुधा) = बहुत प्रकार से (तपांसि युनत्तु) = तपों को हमारे साथ जोड़े। (स्वाहा) = हम उस प्रभु के प्रति अपना अर्पण करें।
भावार्थ -
प्रभुकृपा से हमारा जीवन तपोमय हो। 'ऋतं तपः, सत्यं तपः, शान्तं तपः, शमस्तपः, दमस्तपः' के अनुसार हम 'ऋत, सत्य, शान्त, शम, दम' आदि तपों में लगे रहें।