अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 20/ मन्त्र 1
अन्व॒द्य नोऽनु॑मतिर्य॒ज्ञं दे॒वेषु॑ मन्यताम्। अ॒ग्निश्च॑ हव्य॒वाह॑नो॒ भव॑तां दा॒शुषे॒ मम॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअनु॑ । अ॒द्य । न॒: । अनु॑ऽमति: । य॒ज्ञम् । दे॒वेषु॑ । म॒न्य॒ता॒म् । अ॒ग्नि: । च॒ । ह॒व्य॒ऽवाह॑न: भव॑ताम् । दा॒शुषे॑ । मम॑ ॥२१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्वद्य नोऽनुमतिर्यज्ञं देवेषु मन्यताम्। अग्निश्च हव्यवाहनो भवतां दाशुषे मम ॥
स्वर रहित पद पाठअनु । अद्य । न: । अनुऽमति: । यज्ञम् । देवेषु । मन्यताम् । अग्नि: । च । हव्यऽवाहन: भवताम् । दाशुषे । मम ॥२१.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 20; मन्त्र » 1
विषय - अनुमति
पदार्थ -
१. (अनुमतिः) = अनुकूल बुद्धि, उत्तम कर्मों में अनुज्ञा देनेवाली बुद्धि, (अद्य) = अब (न:) = हमारे (देवेषु यज्ञम्) = देवों के विषय में पूजा, संगतिकरण तथा समर्पण [दान] को (अनुमन्यताम्) = अनुमत [अनुज्ञात] करे। हमारी बुद्धि हमें देवपूजन व देवसंग में प्रेरित करे। २. देवसंग से उत्तम बुद्धिबाले होकर हम यज्ञों में प्रवृत्त हों (च) = और (मम दाशुषे) = मुझ दाश्वान् के लिए. हवि देनेवाले मेरे लिए, (अग्निः) = वह अग्रणी प्रभु (हव्यवाहन:) = हव्य पदार्थों को प्राप्त करानेवाला (भवताम्) = हो। हम यज्ञशील बनें और हव्य पदार्थों को प्राप्त करने के पात्र हों।
भावार्थ -
हमारी अनुमति हमें देवपूजन व देवसंग के लिए प्रेरित करे। इसप्रकार यज्ञशील बनते हुए हम प्रभुकृपा से हव्य पदार्थों को प्राप्त करें।
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