अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 20/ मन्त्र 6
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अनुमतिः
छन्दः - अतिशाक्वरगर्भा जगती
सूक्तम् - अनुमति सूक्त
अनु॑मतिः॒ सर्व॑मि॒दं ब॑भूव॒ यत्तिष्ठ॑ति॒ चर॑ति॒ यदु॑ च॒ विश्व॒मेज॑ति। तस्या॑स्ते देवि सुम॒तौ स्या॒मानु॑मते॒ अनु॒ हि मंस॑से नः ॥
स्वर सहित पद पाठअनु॑ऽमति: । सर्व॑म् । इ॒दम् । ब॒भू॒व॒ । यत् । तिष्ठ॑ति । चर॑ति । यत् । ऊं॒ इति॑ । च॒ । विश्व॑म् । एज॑ति । तस्या॑: । ते॒ । दे॒वि॒ । सु॒ऽम॒तौ । स्या॒म॒ । अनु॑ऽमते । अनु॑ । हि । मंस॑से । न॒: ॥२१.६॥
स्वर रहित मन्त्र
अनुमतिः सर्वमिदं बभूव यत्तिष्ठति चरति यदु च विश्वमेजति। तस्यास्ते देवि सुमतौ स्यामानुमते अनु हि मंससे नः ॥
स्वर रहित पद पाठअनुऽमति: । सर्वम् । इदम् । बभूव । यत् । तिष्ठति । चरति । यत् । ऊं इति । च । विश्वम् । एजति । तस्या: । ते । देवि । सुऽमतौ । स्याम । अनुऽमते । अनु । हि । मंससे । न: ॥२१.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 20; मन्त्र » 6
विषय - सबका ध्यान
पदार्थ -
१. (अनुमतिः) = यह अनुमति देवी (इदं सर्व बभूव) = इस सबको व्याप्त करती है, (यत्) = जो (तिष्ठति) = स्थावर वृक्षगुल्मादिरूप में स्थित है, (चरति) = जो अबुद्धिपूर्वक चेष्टा कर रहा है, (च) = और (यत्) = जो (विश्वम्) = संसार (उ) = निश्चय से (एजति) = बुद्धिपूर्वक चेष्टा कर रहा है, अनुमति 'वृक्षों, सूर्य आदि गतिमान् पिण्डों व सब प्राणियों का ध्यान करती है। २. हे (देवि) = प्रकाशमयि (अनुमते) = अनुमते ! हम (तस्याः ते) = उस तेरी (सुमतौ स्याम) = कल्याणी मति में हों। तू (हि) = निश्चय से (न:) = हमें (अनुमंससे) = उत्तम कर्मों की अनुज्ञा देती है। तेरे कारण हम सदा उत्तम कर्मों में प्रवृत्त होते हैं|
भावार्थ -
अनुमति 'स्थावर, जंगम जगत् का तथा सब प्राणियों का ध्यान करती है। यह हमें सदा यज्ञ आदि उत्तम कर्मों में प्रवृत्त करती है। इसप्रकार अनुमति द्वारा उत्तम कर्मों को करता हुआ यह अथर्वा 'ब्रह्मा' [बढ़ा हुआ] बनता है। अगले दो सूक्त इसी ऋषि के हैं -
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