अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 20/ मन्त्र 2
अन्विद॑नुमते॒ त्वं मंस॑से॒ शं च॑ नस्कृधि। जुषस्व॑ ह॒व्यमाहु॑तं प्र॒जां दे॑वि ररास्व नः ॥
स्वर सहित पद पाठअनु॑ । इत् । अ॒नु॒ऽम॒ते॒ । त्वम् । मंस॑से । शम् । च॒ । न॒: । कृ॒धि॒ । जु॒षस्व॑ । ह॒व्यम् । आऽहु॑तम् । प्र॒ऽजाम् । दे॒वि॒ । र॒रा॒स्व॒। न॒: ॥२१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्विदनुमते त्वं मंससे शं च नस्कृधि। जुषस्व हव्यमाहुतं प्रजां देवि ररास्व नः ॥
स्वर रहित पद पाठअनु । इत् । अनुऽमते । त्वम् । मंससे । शम् । च । न: । कृधि । जुषस्व । हव्यम् । आऽहुतम् । प्रऽजाम् । देवि । ररास्व। न: ॥२१.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 20; मन्त्र » 2
विषय - अनुमति, उत्तम कर्म, उत्तम सन्तान
पदार्थ -
१. हे (अनुमते) = अनुकूल बुद्धे! (त्वम्) = तू (अनुमंससे इत्) = हमें शुभकर्मों के अनुकूल ही मति प्राप्त कराना (च) = और इसप्रकार (नः शं कृधि) = हमारे जीवन को शान्तिवाला बनाना। २. तू (आहुतम्) = अग्नि में आहुत किये हुए (हव्यम्) = हव्य का (जुषस्व) = सेवन कर, यज्ञशील बन। हे (देवि) = द्योतमाने अनुमते! तू हमें कर्मानुकूल उत्तम बुद्धि प्राप्त कराके तथा यज्ञशील बनाकर (न:) = हमारे लिए (प्रजां ररास्व)= प्रशस्त प्रजा को प्राप्त करा, उत्तम वातावरण में हमारी सन्तानें भी उत्तम हों।
भावार्थ -
अनुमति को प्राप्त करके हम सत्कर्मानुकूल बुद्धिवाले, शान्त व यज्ञशील हों और इसप्रकार उत्तम वातावरणवाले घर में उत्तम सन्तानों को प्राप्त करें।
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