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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 20

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 20/ मन्त्र 5
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अनुमतिः छन्दः - जगती सूक्तम् - अनुमति सूक्त

    एमं य॒ज्ञमनु॑मतिर्जगाम सुक्षे॒त्रता॑यै सुवी॒रता॑यै॒ सुजा॑तम्। भ॒द्रा ह्यस्याः॒ प्रम॑तिर्ब॒भूव॒ सेमं य॒ज्ञम॑वतु दे॒वगो॑पा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । इ॒मम् । य॒ज्ञम् । अनु॑ऽमति: । ज॒गा॒म॒ । सु॒ऽक्षे॒त्रता॑यै । सु॒ऽवी॒रता॑यै । सुऽजा॑तम् । भ॒द्रा । हि । अ॒स्या॒: । प्रऽम॑ति: । ब॒भूव॑ । सा । इ॒मम् । य॒ज्ञम् । अ॒व॒तु॒ । दे॒वऽगो॑पा ॥२१.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एमं यज्ञमनुमतिर्जगाम सुक्षेत्रतायै सुवीरतायै सुजातम्। भद्रा ह्यस्याः प्रमतिर्बभूव सेमं यज्ञमवतु देवगोपा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । इमम् । यज्ञम् । अनुऽमति: । जगाम । सुऽक्षेत्रतायै । सुऽवीरतायै । सुऽजातम् । भद्रा । हि । अस्या: । प्रऽमति: । बभूव । सा । इमम् । यज्ञम् । अवतु । देवऽगोपा ॥२१.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 20; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १. (अनुमतिः) = अनुकूल बुद्धि (इमम्) = इस (सुजातम्) = मन्त्रों व द्रव्यों से सुष्टु निष्पन्न (यज्ञम्) = यज्ञ को (आजगाम) = प्राप्त होती है। अनुमति के होने पर हम इन यज्ञों को सम्यक्तया करते हैं। परिणामतः (सुक्षेत्रतायै) = ये यज्ञ हमारे क्षेत्रों की उत्तमता के लिए होते है और (सुवीरतायै) = उत्तम वीर सन्तानों के लिए होते हैं । २. (अस्याः) = इस अनुमति की (प्रमति:) = प्रकृष्ट बुद्धि (हि) = निश्चय से भद्रा बभूव कल्याणकारिणी होती है। (सा) = वह (देवगोपा) = दिव्य भावों का रक्षण करनेवाली बुद्धि (इमं यज्ञं अवतु) = इस यज्ञ का रक्षण करे। अनुमति हमें सदा यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रेरित किये रक्खे।

    भावार्थ -

    अनुमति हमें सम्यक सम्पन्न किये जानेवाले यज्ञों में प्रवृत्त करे, उनसे हमारे क्षेत्र उत्तम हों, हमें उत्तम सन्तान प्राप्त हो। यह अनुमति दिव्य भावों का रक्षण करती हुई हमें यज्ञ में प्रवृत्त करे।

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