Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 53

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 53/ मन्त्र 2
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - आयुः, बृहस्पतिः, अश्विनौ छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त

    सं क्रा॑मतं॒ मा ज॑हीतं॒ शरी॑रं प्राणापा॒नौ ते॑ स॒युजा॑वि॒ह स्ता॑म्। श॒तं जी॑व श॒रदो॒ वर्ध॑मानो॒ऽग्निष्टे॑ गो॒पा अ॑धि॒पा वसि॑ष्ठः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । क्रा॒म॒त॒म् । मा । ज॒ही॒त॒म् । शरी॑रम् । प्रा॒णा॒पा॒नौ । ते॒ । स॒ऽयुजौ॑ । इ॒ह । स्ता॒म् । श॒तम् । जी॒व॒ । श॒रद॑: । वर्ध॑मान: । अ॒ग्नि: । ते॒ । गो॒पा: । अ॒धि॒ऽपा: । वसि॑ष्ठ: ॥५५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सं क्रामतं मा जहीतं शरीरं प्राणापानौ ते सयुजाविह स्ताम्। शतं जीव शरदो वर्धमानोऽग्निष्टे गोपा अधिपा वसिष्ठः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । क्रामतम् । मा । जहीतम् । शरीरम् । प्राणापानौ । ते । सऽयुजौ । इह । स्ताम् । शतम् । जीव । शरद: । वर्धमान: । अग्नि: । ते । गोपा: । अधिऽपा: । वसिष्ठ: ॥५५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 53; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. हे प्राणापानो! आप इस आयुष्काम पुरुष के शरीर में (संक्रामतम्) = मिलकर सम्यक् गतिवाले होवो। इसके (शरीर मा जहीतम) = शरीर को मत छोड़ो। हे आयुष्काम! प्राणापानौ-ये प्राणापान (ते इह) = तेरे इस शरीर से (सयुजौ स्ताम्) = परस्पर संयुक्त हों, मिलकर कार्य करनेवाले हों। जब तक ये मिलकर कार्य करते रहते हैं, तब तक जीवन ठीक बना रहता है। २. हे आयुष्काम! तू (शतं शरदः जीव) = सौ वर्षपर्यन्त जीवनवाला हो। (वर्धमान:) = तू शरीर में स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से, मन में नर्मल्य के दृष्टिकोण से तथा बुद्धि में दीप्ति के दृष्टिकोण से सदा बढ़ता हुआ हो। (अग्नि:) = बह अग्रणी प्रभु (ते गोपा:) = तेरा रक्षक है, (अधिपा:) = अधिष्ठातृरूपेण पालन करनेवाला है, (वसिष्ठः) = वासयितृतम है, तेरे निवास को सर्वाधिक श्रेष्ठ बनानेवाला है।

    भावार्थ -

    शरीर में प्राणापान मिलकर समुचित रूप से कार्य करते हुए हमें दीर्घजीवी बनाएँ। वह अग्रणी प्रभु हमारा रक्षक, पालक व वासयिता हो।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top