अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 53/ मन्त्र 5
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - आयुः, बृहस्पतिः, अश्विनौ
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
प्र वि॑षतं प्राणापानावन॒ड्वाहा॑विव व्र॒जम्। अ॒यं ज॑रि॒म्णः शे॑व॒धिररि॑ष्ट इ॒ह व॑र्धताम् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । वि॒श॒त॒म् । प्रा॒णा॒पा॒नौ॒ । अ॒न॒ड्वाहौ॑ऽइव । व्र॒जम् । अ॒यम् । ज॒रि॒म्ण: । शे॒व॒ऽधि: । अरिष्ट॑: । इ॒ह । व॒र्ध॒ता॒म् ॥५५.५॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र विषतं प्राणापानावनड्वाहाविव व्रजम्। अयं जरिम्णः शेवधिररिष्ट इह वर्धताम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । विशतम् । प्राणापानौ । अनड्वाहौऽइव । व्रजम् । अयम् । जरिम्ण: । शेवऽधि: । अरिष्ट: । इह । वर्धताम् ॥५५.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 53; मन्त्र » 5
विषय - जरिम्णाः, शेवधिः, अरिष्टः
पदार्थ -
१. हे (प्राणापानौ) = प्राण और अपान ! (प्रविशतम्) = इस आयुष्काम के शरीर में प्रवेश करो। इसप्रकार प्रवेश करो (इव) = जैसेकि (अनड्वाहौ) = दो बैल (ब्रजम्) = एक गोष्ठ में प्रवेश करते हैं। २. (अयम्) = यह आयुष्काम पुरुष (जरिम्ण: शेवधि:) = जरा का-पूर्ण वृद्धावस्था का कोश हो। (अरिष्ट:) = अहिंसित होता हुआ, मृत्यु की बाधा से रहित होता हुआ, सब इन्द्रियों से अहीन होता हुआ (इह वर्धताम्) = इस लोक में समृद्धि को प्राप्त हो।
भावार्थ -
हमारे शरीर में प्राणापान अपने-अपने स्थान में ठीक प्रकार से स्थित हों। यह पुरुष दीर्घजीवी बने, सब अंगों में अहिंसित होता हुआ बढ़े।
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