अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 70/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वा
देवता - श्येनः
छन्दः - पुरःककुम्मत्यनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुदमन सूक्त
अ॑जिराधिरा॒जौ श्ये॒नौ सं॑पा॒तिना॑विव। आज्यं॑ पृतन्य॒तो ह॑तां॒ यो नः॒ कश्चा॑भ्यघा॒यति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒जि॒र॒ऽअ॒धि॒रा॒जौ । श्ये॒नौ । सं॒पा॒तिनौ॑ऽइव । आज्य॑म् । पृ॒त॒न्य॒त: । ह॒ता॒म् । य: । न॒: । क: । च॒ । अ॒भि॒ऽअ॒घा॒यति ॥७३.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अजिराधिराजौ श्येनौ संपातिनाविव। आज्यं पृतन्यतो हतां यो नः कश्चाभ्यघायति ॥
स्वर रहित पद पाठअजिरऽअधिराजौ । श्येनौ । संपातिनौऽइव । आज्यम् । पृतन्यत: । हताम् । य: । न: । क: । च । अभिऽअघायति ॥७३.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 70; मन्त्र » 3
विषय - अजिर+अधिराज
पदार्थ -
१. (अजिर-अधिराजौ) = [अज गतिक्षेपणयो:, राजू दीसी] गतिशील व इन्द्रियों का शासक ये दोनों व्यक्ति (संपातिनौ श्येनौ इव) = आकाशमार्ग से द्वेष्य पक्षी पर निष्पतनशील बाज़ों के समान हैं। जैसे बाज शत्रुभूत पक्षी का विनाश करता है, इसी प्रकार ये अजिर और अधिराज (पृतन्यतः आज्यं हताम्) = सेना द्वारा संग्रामेच्छु पुरुष की दीप्ति को नष्ट करते हैं (यः च कश्चन) = और जो कोई शत्रु (नः) = हमपर (अभ्यघायति) = हिंसारूप पापकर्म करना चाहता है, उसकी दीप्ति को नष्ट करते हैं।
भावार्थ -
हम गतिशील [अजिर] व इन्द्रियों के शासक [अधिराज] बनकर शत्रुओं को नष्ट करें।
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