अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 70/ मन्त्र 1
यत्किं चा॒सौ मन॑सा॒ यच्च॑ वा॒चा य॒ज्ञैर्जु॒होति॑ ह॒विषा॒ यजु॑षा। तन्मृ॒त्युना॒ निरृ॑तिः संविदा॒ना पु॒रा स॒त्यादाहु॑तिं हन्त्वस्य ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । किम् । च॒ । अ॒सौ । मन॑सा । यत् । च॒ । वा॒चा । रा॒ज्ञै: । जु॒होति॑ । ह॒विषा॑ । यजु॑षा । तत् । मृ॒त्युना॑ । नि:ऽऋ॑ति: । स॒म्ऽवि॒दा॒ना । पु॒रा । स॒त्यात् । आऽहु॑तिम् । ह॒न्तु॒ । अ॒स्य॒ ॥७३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्किं चासौ मनसा यच्च वाचा यज्ञैर्जुहोति हविषा यजुषा। तन्मृत्युना निरृतिः संविदाना पुरा सत्यादाहुतिं हन्त्वस्य ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । किम् । च । असौ । मनसा । यत् । च । वाचा । राज्ञै: । जुहोति । हविषा । यजुषा । तत् । मृत्युना । नि:ऽऋति: । सम्ऽविदाना । पुरा । सत्यात् । आऽहुतिम् । हन्तु । अस्य ॥७३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 70; मन्त्र » 1
विषय - हिंस्त्रः स्वपापेन विहिंसितः खलु
पदार्थ -
१. (असौ) = वह दूरस्थ शत्रु (यत् किम्) = जो कुछ कर्म-शत्रुहननरूप कर्म करने के लिए (मनसा) = मन के द्वारा ध्यान करता है, (यत् च) = और जो कर्म (वाचा) = वाणी से 'करता हूँ' इसप्रकार कहता है तथा (यज्ञैः) = अभिचार कर्मों से, (हविषा) = उस कर्म के लिए उचित द्रव्यों से, (यजुषा) = मन्त्रों से (जुहोति) = होम करता है, (अस्य) = अपने प्रतिपक्ष के विनाश के लिए 'मन, वाणी व शरीर' से उपाय करते हुए शत्रु के (तत्) = उस मन से, ध्यान व वाणी से उक्त कर्म को तथा (आहुतिम्) = क्रिया से निष्पाद्यमान होमकर्म को (सत्यात् पुरा) = सत्यभूत कर्मफल से पहले ही, कर्म के सफल होने से पूर्व ही (निर्ऋति:) = पाप देवता (मृत्युना संविदाना) = मृत्यु के साथ संज्ञान-[ऐकमत्य]-बाली हुई-हुई (हन्तु) = नष्ट कर डाले।
भावार्थ -
शत्रु द्वारा मन, वाणी व कर्म' से हमारे विषय में क्रियमाण अभिचार कर्म के फलप्रद होने से पूर्व ही मृत्युसहित पापदेवता उस शत्रु को नष्ट कर डाले। पापकर्म करनेवाला उस कर्म से स्वयं ही विनष्ट हो जाए।
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